कोई हो या न हो, मगर किताबें।
ये शब्द हमेशा से काफी अहम रहे हैं। तब से जब बचपन में मेरे पास बात करने के लिए कोई नहीं होता था। जब मां-पापा ऑफिस में होते थे और मुझे दिन के कई घंटे अकेले घर में बिताने होते थे। मैं सबसे पहले अपना होमवर्क पूरा करती और उसके बाद कोई भी किताब उठाकर पढ़ने लगती। शुरुआत में ये शौक इसलिए लगा ताकि मैं खुद को बड़ा महसूस कर पाऊं। बिलकुल उसी अंदाज में किताब हाथ में लेकर पढ़ पाऊं जैसे बड़े लोग पढ़ते हैं...फिर पढ़ते-पढ़ते वही किताबें बेस्ट फ्रेंड बन गईं। चंपक, चंदा मामा, चाचा चौधरी, सरिता, महकता आंचल तक न जाने कौन-कौन सी किताबों के पन्ने मैंने पलट लिए। यही सब मैग्जींस उन दिनों में घर में होती थी। या फिर मैं प़डोस में किसी भैय्या दीदी से उनके सिलेबस की लिटरेचर की किताबें ले आती थी। और कविता कहानियां पढ़ती रहती थी। बचपन का ये सिलसिला आज तक चल रहा है और किताबें आज भी सबसे अच्छी दोस्त हैं।
अपने एक ऐसे ही दोस्त से मिलवाने के लिए आज ये पोस्ट लिख रही हूं।
किताब का नाम है मेरा दागिस्तान।
-कास्पियन सागर के निकट, उत्तर-पूर्वी काकेशिया की पर्वतमालाओं के बीच स्थित है दागिस्तान। सोवियत संघ के जमाने में यह एक स्वायत सोवियत समाजवादी गणराज्य था और आज यह रूस का एक स्वायत्त गणराज्य है।
किताब के लेखक हैं रसूल हमजातोव
-दागिस्तान के कवियों में अगर पहला नाम हमजात त्सादासा का लिया जाता है तो दूसरा नाम है उन्हीं के बेटे रसूल हमजातोव का। रसूल हमजातोव मूलतः कवि थे, लेकिन उनके गद्य में भी एक सम्मोहक शक्ति है। इसकी मिसाल है ये किताब जो बाकी किताबों से इसलिए अलग है क्योंकि इसमें सिर्फ किताब पढ़ने का ही सुख नहीं मिलता...एक किताब के लिखे जाने की पूरी यात्रा और इस यात्रा में लेखक के जीवन में हुए तमाम घटनाक्रमों से परिचय होता है।
कैसे एक लेखक के दिमाग में किताब लिखने का ख्याल आता है?
कैसे वह एक किताब लिखना शुरू करता है?
वह एक साथ बैठकर एक ही बार में किताब लिख देता है या फिर अपने मूड के हिसाब से जब-तब लिखता रहता है?
कैसे वह अपनी किताब का नाम चुनता है?
वह उसे एक बेहतरीन और पठनीय किताब बनाने के लिए क्या करता है?
शब्दों की दुनिया के इस रोमांच से जुड़ी काफी दिलचस्प चीजें और किस्से इस किताब में हैं।
अगर तुम अतीत पर पिस्तौल से गोली चलाओगे,
तो भविष्य तुम पर तोप से गोले बरसाएगा।
-अबूतालिब
(सोवियत जन-कवि)
-जब आंख खुलती है,
तो बिस्तर से ऐसे लपककर मत उठो
मानों तुम्हें किसी ने डंक मार दिया हो।
तुमने जो कुछ सपने में देखा है,
पहले उस पर विचार कर लो।
-कविताएं जिन्हें जीवनभर दोहराया जाता है, एक बार ही लिखी जाती हैं।
-पूछा जा सकता है कि क्या उस शब्द को दुनिया में भेजना ठीक होगा, जो दिल से होकर नहीं आया।
-कहते हैं शब्द तो बारिश के समान होते हैं, एक बार- महान वरदान है, दूसरी बार-अच्छी रहती है, तीसरी बार- सहन हो सकती है, चौथी बार- दुख और मुसीबत बन जाती है।
-लेखक के लिए भाषा वैसे ही है, जैसे किसान के लिए फसल। हर बाली में बहुत से दाने होते हैं और इतनी अधिक बालियां होती हैं कि गिनना नामुमकिन। पर किसान अगर हाथ पर हाथ रखकर बैठा हुआ अपनी फसल को देखता रहे, तो एक भी दाना उसे नहीं मिलेगा। रई की फसल को काटना और फिर मांड़ना चाहिए। मगर इतने पर ही तो काम समाप्त नहीं हो जाता। मांडे अनाज को ओसाना और दानों को भूसे, घास-फूस से अलग करना जरूरी होता है। इसके बाद आटा पीसने, गूंधने और रोटी पकाने की जरूरत होती है, पर शायद सबसे ज्यादा जरूरी तो यह याद रखना होता है कि रोटी की चाहे कितनी भी अधिक जरूरत क्यों न हो, सारा अनाज इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। किसान सबसे अच्छे दानों को बीजों के रूप में इस्तेमाल करने के लिए रख लेता है। षा पर काम करने वाला लेखक सबसे अधिक तो किसान जैसा ही होता है।
-यह पूछते हैं कि अगले कुछ सालों में वह क्या लिखने का इरादा रखता है। यह सही है कि किस तरह की चीज वह लिखना चाहता है, उसकी कुछ मोटी-सी-रूप-रेखा लेखक के दिमाग में होती है। शायद वह यह योजना बना सकता है कि उपन्यास लिखेगा या तीन खंडों वाला बड़ा उपन्यास लिखेगा, मगर कविता...कविता तो अप्रत्याशित ही आती है, उपहार की तरह। कवि का धंधा योजनाओं के कठोर बंधनों को नहीं मानता। कोई अपने लिए इस तरह की योजना तो नहीं बना सकता- आज सुबह के दस बजे में सड़क पर मिल जाने वाली लड़की से प्रेम करने लगूंगा। या यह कि कल शाम के पांच बजे किसी नीच आदमी से नफरत करने लगूंगा।
-कविता गुलाबों के बगीचे या क्यारियों में खिलनेवाले फूलों के समान नहीं है। वहीं वे हमेशा हमारे सामने होते हैं- हम उन्हें खोजना नहीं पड़ता। कविता तो मैदानों, ऊंची चरागाहों में खिलनेवाले फूलों की तरह होती है। वहां हर कदम पर नया, अधिक सुंदर फूल पाने की आशा बनी रहती है।
-तुम्हारे जीवन में क्या ऐसी सीमा-रेखाएं, ऐसी हदें आई हैं, जो तुम्हें लांघनी पड़ी हों? मुझे एक ऐसी सीमा लांघनी पड़ी है-अपनी भावनाओं को गंभीरता पूर्वक समझे बिना मैंने प्यार किया है। बाद में मुझे इसके लिए पछताना पड़ा।
-मैं हर चीज को वैसे ही दोषहीन देखता हूं जैसे प्रेमी अपनी प्रेयसी को।
-सेब भिन्न-भिन्न किस्म के होते हैं। कुछ जल्दी पक जाते हैं और दूसरे सिर्फ पतझर में जाकर ही रसीले होते हैं। लगता है कि मैं पतझरवाली ही किस्म हूं।
-समय! दिनों से साल और सालों से सदियां बनती हैं। मगर युग क्या है? यह सदियों से बनता है या सालों से? या फिर एक दिन भी युग बन सकता है? वृक्ष पांच महीने तक हरा रहता है, मगर उसके सभी पत्तों को पीला करने के लिए एक दिन या एक रात ही काफी होती है। इसके उलट भी होता है। पांच महीनों तक वृक्ष निपत्ता और कोयले की तरह काला रहता है। उसे हरा-भरा करने के लिए एक उजली, सुहावनी सुबह ही काफी होती है। खुशी भरी एक सुबह ही उस पर फूल लाने के लिए काफी रहती है। ऐसे वृक्ष भी हैं जो हर महीने बाद अपना रंग बदलते हैं, और ऐसे भी हैं, जो कभी रंग नहीं बदलते। मौसमी पक्षी भी हैं, जो मौसम के मुताबिक सारी दुनिया में जहां-तहां उड़ते रहते हैं, और उकाब भी हैं, जो कभी अपने पहाड़ छोड़कर नहीं जाते। पक्षी हवा के रूख के खिलाफ उड़ना पसंद करते हैं। अच्छी मछली हमेशा धारा के विरुद्ध तैरती है। सच्चा कवि अपने हृदय का आदेश मानते हुए विश्व मत का विरोध करने से कभी नहीं झिझकता।
-मैंने बहुत से युवाजन देखे हैं, जो शादी करने से पहले अपने दिल से नहीं, बल्कि रिश्तेदारों, चाचा-चाचियों से सलाह-मशविरा करते हैं। अपने सृजय कार्य में लेखक की तो प्यार के बिना शादी हो ही नहीं सकती। चाची या मौसी की सलाह से हुई शादी के फलस्वरूप कम से कम जिंदा बच्चे तो होते हैं। बेशक ऐसा सुनने में आया है कि पति-पत्नी में जितना प्यार होता है, बच्चे उतने ही ज्यादा सुंदर होते हैं। मगर लेखक की प्रेमहीन शादी से तो मृत पुस्तकों का ही जन्म होता है। लेखक को अपने विषय से नाता जोड़ने के पहले यह सुन लेना चाहिए कि उसका दिल क्या कहता है।
-अवार लोगों में यह कहा जाता है कि संसार की रचना के एक सौ बरस पहले ही कवि का जन्म हुआ था। इस तरह वे शायद यह कहना चाहते हैं कि यदि कवि संसार की रचना में हिस्सा न लेता, तो दुनिया इतनी सुंदर न बनती।
-मेरे तो समूचे जीवन के लिए ही कविता नमक के समान रही है। उसके बिना मेरा जीवन फीका और बेजायका होता। हम पहाड़ी लोग मेज पर खाना लगाते समय नमकदानी रखना कभी नहीं भूलते।
-कविता-तेज घुड़सवारी है और गद्य- पैदल यात्रा।
-जब रसूल हमजातोव ने पहली बार गद्य लिखना शुरू किया तब कविता के बारे में उनके विचार-
कविता क्या तुम नहीं जानतीं कि मैं कभी तुमसे अलग नहीं हो सकता? क्या मैं अपने अंतर में जन्म लेने वाली सभी खुशियों, सभी आंसुओं से अलग हो सकता हूं? तुम उस लड़की जैसी हो, जिसका जन्म तब हुआ, जब सभी लड़के की राह देख रहे थे। तुम उस लड़की के समान हो, जो पैदा होकर खुद ही अपने बारे में यह कहे- मैं जानती हूं कि आप लोग मेरा इंतजार नहीं कर रहे थे और फिलहाल आपमें से कोई भी मुझे प्यार नहीं करता। पर कोई बात नहीं, मुझे जरा बड़ी होने और खिलने दो, चोटियां गूंथने और गीत गाने दो। तब देखेंगे कि क्या इस दुनिया में कोई ऐसा आदमी है जो मुझे प्यार न करने की हिम्मत करेगा।
-कविता के बिना पहाड़ विराट पत्थर बन जाएंगे, बारिश परेशान करने वाले पानी और डबरों में बदल जाएगी और सूर्य गर्मी देने वाला अंतरिक्षीय पिंड बनकर रह जाएगा।
-यह बात बहुत बाद में मेरी समझ में आई कि अकवि इस दुनिया में कोई नहीं है। हर व्यक्ति की आत्मा में कुछ कवि बसा हुआ है।
-पहली बार प्यार करने वाली जवान पहाड़ी लड़की ने सुबह खिड़की में से बाहर झांका, तो खुशी से चिल्ला उठी-
इन वृक्षों पर कितने सुंदर फूल आ गए हैं?
वृक्षों पर तुम्हें फूल कहां नजर आ रहे हैं? उसकी बूढ़ी मां ने आपत्ति की। यह तो बर्फ है, पतझर का अंत और ज़ाडे का आरंभ हो रहा है।
सुबह एक ही थी, मगर एक नारी के लिए वसंत की और दूसरी के लिए जाड़े की।
-खुशकिस्मती से मैं जल्द ही यह समझ गया कि कविता और चालाकी ऐसी दो तलवारें हैं, जो एक म्यान में नहीं समा सकतीं।
-एक रूसी कहावत के अनुसार-
बीस साल की उम्र में अगर ताकत नहीं तो इंतजार नहीं करो, वह नहीं आएगी। तीस साल की उम्र में अगर अक्ल नहीं है, तो इंतजार नहीं करो वह नहीं आएगी। चालीस की उम्र में अगर धन नहीं-तो इंतजार नहीं करो, वह नहीं आएगा।
-पिता जी कहा करते थे-
ऐसे सूखो नहीं कि अकड़कर टूट जाओ, मगर इतने गीले भी नहीं होवो कि चीथड़े की तरह तुम्हें निचोड़ लिया जाए।
-रसूल मुझे यह बताओ कि सिगरेट दूसरी सभी चीजों से किस बात में भिन्न है?
मालूम नहीं
बाकी सभी चीजों को खींचा जाता है तो, वे लंबी हो जाती हैं और यह उलटे छोटी रह जाती है।
अबूतालिब रसूल को बता रहे हैं-
मेरी जिंदगी में सबसे ज्यादा खुशी का दिन तब आया था, जब मैं ग्यारह साल का था और बछड़े चराता था। मेरे पिता ने जिंदगी में पहली बार मुझे जूते भेंट किए। वे नए जूते पाकर मेरी आत्मा में गर्व की जो भावना पैदा हुई, उसे बयान करने के लिए शब्द नहीं मिल सकते। मैं अब बेधड़क उन खड्डों में और उन पगडंडियों पर जाता, जहां एक ही दिन पहले नुकीले, ठंडे पत्थरों से मेरे पांव जख्मी हो जाते थे। अब मैं दृंढ़ता से इन पत्थरों पर पैर रखता, न दर्द और न ठंड महसूस करता। मेरी खुशी तीन दिन तक बनी रही और उनके बाद मेरी जिंदगी के सबसे कड़वे मिनट आए। चौथे दिन पिता जी बोले- सुनो अबूतालिब तुम्हारे पास अब नए मजबूत जूते हैं, तुम्हारे पास लाठी है और ग्यारह साल तक तुम इस धरती पर जी भी चुके हो। वक्त आ गया है कि अपनी
रोजी-रोटी की फिक्र में अब तुम अपनी राह पकड़ो। उस वक्त मेरे दिल पर जैसी गुजरी, वैसी तो बाकी सारी जिंदगी में कभी भी नहीं गुजरी।
-तीसरी बीवी का किस्सा
एक नौजवान दागिस्तानी कवि मास्को के साहित्य-संस्थान में पढ़ने गया। एक साल बीता, तो अचानक उसने एक ऐलान कर दिया कि अपनी बीवी, दूरस्थ पहाड़ी औरत को तलाक दे रहा है। किसलिए तलाक दे रहे हो? हमने उससे पूछा? बहुत अर्सा नहीं हुआ तुम्हें शादी किए और जहां तक हमें मालूम है तुमने उससे इसलिए शादी की थी कि तुम उससे प्रेम करते थे। तो अब क्या हो गया? हमारे बीच अब कुछ भी तो सामान्य नहीं है। वह शेक्सपीयर से अपरिचित है, उसने येव्गेनी ओनेगिन नहीं पढ़ा, उसे यह मालूम नहीं कि लेक स्कूल किसे कहते हैं और उसने मेरिमे के बारे में कभी नहीं सुना। कुछ ही समय बाद नौजवान कवि मास्कोवासिनी पत्नी के साथ, जिसने संभवतः मेरिमे और शेक्सपीयर के बारे में सुना था, मखचकला आया। हमारे शहर में वह सिर्फ एक साल रही और फिर उसे मास्को लौटना पड़ा, क्योंकि पति ने उसे तलाक दे दिया था। तुमने उसे तलाक क्यों दे दिया? हमने उससे पूछा? तुमने हाल ही में शादी की थी और वह भी इसलिए कि उसे प्यार करते थे। तो अब क्या हो गया? इसलिए कि हमारे बीच कुछ भी तो सामान्य नहीं था। वह अवार भाषा का एक भी शब्द नहीं जानती, अवार रीति-रिवाजों से अपरिचित है, पहाड़ी लोगों, मेरे हमवतनों का मिजाज नहीं समझती उसे उनका अपने घर में आना अच्छा नहीं लगता। वह एक भी अवार कहावत, अवार पहेली या गीत नहीं जानती।
तो अब तुम क्या करोगे
शायद तीसरी बार शादी करनी पड़ेगी।
-पिता जी कहा करते थे
जिस साहित्यिक रचना में लेखक स्पष्ट दिखाई नहीं देता, वह सवार के बिना भागे जाते घोड़े के समान है।
-सभी को मालूम होता है कि उन्हें क्या चाहिए, मगर सभी उसे हासिल नहीं कर पाते। सभी अपनी मंजिल जानते हैं पर वहां तक सभी नहीं पहुंचते।। ऐसे भी लोग हैं, जिन्हें ऐसा लगता है कि उन्हें यह मालूम है कि किताब कैसे लिखनी चाहिए, मगर वे उसे लिख नहीं पाते।
-कहते हैं कि एक ही सुई फ्रॉक और मुर्दे का कफन सीती है।
-कहते हैं कि वह दरवाजा नहीं खोलो, जिसे बाद में बंद नहीं कर सको।
-प्रतिभा या तो है, या नहीं। उसे न तो कोई दे सकता है, न ले सकता है। प्रतिभाशाली तो पैदा ही होना चाहिए। प्रतिभा विरासत में नहीं मिलती, वरना
-कला-क्षेत्र में वंशों का बोलबाला होता। बुद्धिमान के यहां अक्सर मूर्ख बेटा पैदा होता है और मूर्ख का बेटा बुद्धिमान हो सकता है। प्रतिभा बड़ी दुर्लभ होती है, अप्रत्याशित ही आती है और इसीलिए वह बिजली की कौंध, इंद्गधनुष अथवा गर्मा से बुरी तरह झुलसे और उम्मीद छोड़ चुके रेगिस्तान में अचानक आने वाली बारिश की तरह आश्चर्यचकित कर देती है।
-अबूतालिब और खातिमत का किस्सा-
अबूतालिब शुरू में भेड़ें चराते रहे। इसके बाद वे टीनगर बन गए। मगर चरवाहे की अपनी मुरली वे तब भी अपने साथ ही रखते और फुरसत के वक्त उसे बजाते। अपने धंधे के सिलसिले में वे गांव-गांव जाते। कुछ लोगों का कहना है कि कूली गांव में और दूसरों के मुताबिक गूमूक में खातिमत नाम की एक लड़की
गागर की मरम्मत कराने के लिए अबूतालिब के पास आई।।
बहुत देर तक अबूतालिब उस गागर की मरम्मत करते रहे। कभी वे उसे एक तरफ रखकर इत्मीनान से सिगरेट पीने लगते, तो कभी मुरली बजाना शुरू करते
और कभी खातिमत को झूठे-सच्चे किस्से-कहानियां सुनाने लगते।
खातिमत उससे जल्दी करने को कहती हुई चिल्लाई-
तुम अपनी सिगरेट ही कुछ कम लंबी लपेटो।
अरे, यह तुम क्या कह रही हो, मेरी प्यारी खातिमत। अब मैं गज भर लंबी सिगरेट बनाऊंगा ताकि वह और ज्यादा देर तक जलती रहे।
आखिर लड़की बिलकुल ही आपे से बाहर हो गई और अबूतालिब को मजबूर होकर गागर उसे लौटानी पड़ी। गागर ऐसे चमचम करती थी मानो नई हो। इतनी अधिक कोशिश से अबूतालिब ने उसकी मरम्मत की थी। मगर लड़की ने जैसे ही उसमें पानी भरा कि वह चूने लगी। गुस्से से भुनभुनाती, बड़ी मुश्किल से अपने
दुख के आंसुओं को रोकती हुई वह फिर से अबूतालिब के पास आई।
इतनी देर तक तुमने गागर की मरम्मत की और वह पहले से भी ज्यादा चूती है।
अल्लाह करे कि दिलेर और खूबसूरत लड़के हर दिन तुम्हारी गागर पर कंकड़ फेंके। तुम नाराज क्यों हो रही हो, खातिमत, मैंने तो जान-बूझकर उसमें सूराख छोड़ दिया था ताकि तुम फिर से मेरे पास आओ और मैं तुम्हें देख सकूं। अच्छा हो कि लड़के मेरी गागर पर नहीं, तुम्हारे सिर पर कंकड़ फेंके। खातिमत चिल्लाई और फिर कभी अबूतालिब के पास नहीं आई। अबूतालिब को उसकी बड़ी याद आती। खातिमत के प्रति उनका प्यार बढ़ता ही चला गया। प्यार जितना बढ़ा, याद उतनी ही ज्यादा सताने लगी। इस तरह उस लड़की की याद में घुलते हुए अबूतालिब ने एक गीत रचा, जिसमें उन्होंने खातिमत और उसके प्रति अपने प्यार को अभिव्यक्ति दी। इसके बाद उन्होंने दूसरा फिर दसवां फिर बीसवां गीत रचा और इस तरह से टीनगर की जगह जाने-माने कवि बन गए। इसी बीच खातिमत ने हाली नाम के एक आदमी से शादी कर ली। कुछ अर्से बाद उसे तलाक देकर किसी मूसा की बीवी बन गई।
एक दिन ख्यातिलब्ध कवि अबूतालिब बाजार में से जा रहे थे, तो किसी ने उन्हें आवाज दी।
ए अबूतालिब गागर की मरम्मत नहीं कर दोगे?
कवि ने मुड़कर देखा तो बूढ़ी झूकी हुई और बीमार खातिमत को अपने सामने पाया।
शायद अब तुम्हारा दिमाग आसमान पर जा चढ़ा है, अबूतालिब।
ऐसा तो होना ही था, अब तुम सर्वोच्च सोवियत के सदस्य हो, तमगा लगाए हो। लगता है कि अपना टीनगरी का धंधा भूल गए हो, पर अगर मामले की गहराई में जाया जाए, तो मैंने ही तुम्हें कवि बनाया है, अबूतालिब। उस वक्त अगर मैं मरम्मत के लिए गागर तुम्हारे पास न लाती, तो तुम अभी तक उसी तरह बाजार में बैठे हुए टीनगरी करते होते। ओ खातिमत, अगर तुममें सचमुच ऐसी ताकत है, अगर तुम सचमुच ही लोगों को कवि बना सकती हो, तो तुमने अपने पहले पति मिलीशियामैन हाली को क्यों नहीं कवि बना दिया? और हां तुम्हारे दूसरे पति मूसा के गीत भी अब तक सुनने को नहीं मिले।
अबूतालिब चले भी गए, मगर खातिमत यह न समझ पाते हुए कि क्या जवाब दे, जहां की तहां मुंह बाए खड़ी थी। बारिश की बूंदों से ही वह संभली।
तो इस तरह अगर कोई खुद ही शायर नहीं बनता, तो किसी भी दूसरे आदमी में उसे शायर बनाने की ताकत नहीं है।
-रसूल एक किस्सा सुनाते हैं जो उनके पिता जी ने उन्हें काफी बाद में बताया था। उनके एक पुराने मित्र, दागिस्तान के एक प्रसिद्ध और सम्मानित व्यक्ति ने उनसे कहा-
बहुत अच्छा हो कि रसूल अब किसी को जी-जान से प्यार करने लगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि अपने प्यार से उसे खुशी मिलेगी या गम उसमें उसे कामयाबी होगी या नाकायाबी। शायद यह तो ज्यादा अच्छा ही होगा कि दूसरी तरफ से उसे प्यार न मिले कि प्यार उसके लिए पीड़ा और वेदना ही लेकर आए। तब वह एकदम बड़ा कवि बन जाएगा।
-दिल से प्यार करने के लिए भी प्रतिभा की जरूरत होती है। प्रतिभा को प्यार की जितनी जरूरत है, शायद प्यार को प्रतिभा की उससे कहीं अधिक आवश्यकता है। इसमें कोई शक नहीं कि प्यार से प्रतिभा पनपती है, मगर वह उसकी जगह नहीं ले सकता। प्रेम के प्रतिकूल भावना यानी घृणा के बारे में भी मैं यही कह सकता हूं।
-उसकी बेचैन और अलंकारी भावनाएं उसी तरह अपना मार्ग खोज लेतीं जैसे घास की कोमल-सी पत्ती नम, बोझिल और अंधेरी मिट्टी में से सूरज की ओर अपना रास्ता बना लेती है। अरे कभी-कभी तो वह पत्थर के नीचे से भी बाहर निकल जाती है।
-शायद प्रतिभा जीवन के लंबे अनुभव से पनपती है? और कला में प्रतिभा का व्यक्त होना विस्तृत ज्ञान, कठिन भाग्यों तथा महान कार्यों का परिणाम है।
-युद्ध से पृथ्वी पर लोग नहीं बढ़ते, मगर उससे वीरों की संख्या बढ़ जाती है।
-जीवन की सीमाएं हैं, वह छोटा है और कल्पनाएं हैं असीम। खुद मैं अभी सड़क पर चला जा रहा हूं, मगर कल्पना घर पर पहुंच चुकी है। खुद मैं प्रेमिका के घर जा रहा हूं, मगर कल्पना उसकी बांहों में भी पहुंच तुकी है। खुद मैं इस वक्त सांस ले रहा हूं, मगर कल्पना कई साल आगे पहुंच जाती है। वह उन सीमाओं से भी दूर पहुंच जाती है, जहां जीवन अंधेरे में जाकर खत्म हो जाता है। कल्पना अगली सदियों की उड़ान भरती है।
-अगर लिखे भी रह सकते हो, तो न लिखो।
क्या मैं लिखे बिना रह सकता हूं? रोगी को जब बहुत पीड़ा होती है, तो क्या वह कराहे बिना रह सकता है? क्या कोई सुखी आदमी मुस्कुराए बिना रह सकता है? क्या बुलबुल चांदनी रात की निस्तब्धता में गाए बिना रह सकती है? जब नम और गर्म मिट्टी में बीज फूट चुका है तो घास बिना बढ़े कैसे रह सकती है? वसंत का सूरज जब कलियों को गर्माता है, तो फूल कैसे खिले बिना रह सकते हैं? जब बर्फ पिघल जाती है और पत्थरों से टकराता तथा शोर मचाता हुआ पानी नीचे बहने लगता है तो पहाडी नदियां सागर की ओर बहे बिना कैसे रह सकती हैं? टहनियां अगर सूख चुकी हों और उनमें शोला भड़क चुका हो, तो अलाव जले बिना कैसे रह सकता है।
-एक बार रसूल से किसी ने पूछा-
तुम्हारे पिता हमजात कविता रचते थे। तुम, हमजात के बेटे भी कविता लिखते हो। तुम काम कब करोगे? या तुम रोटी के टुकड़े से कुछ अधिक भारी चीज उठाए बिना ही अपनी सारी जिंदगी बिता देने का इरादा रखते हो?
कविता ही तो मेरा काम है, मैंने यथाशक्ति धीरज से जवाब दिया। बातचीत के ऐसे रुख ले लेने पर मैं सकते में आ गया था।
-अगर कविता लिखना ही काम है, तो निठल्लापन किसे कहते हैं? अगर गीत ही श्रम है, तो मौज और मनोरंजन क्या है?
गीत गाने वालों के लिए वह सचमुच मनोरंजन हैं, मगर जो उन्हें रचते हैं उनके लिए वही काम है। नींद और आराम, साप्ताहिक और वार्षिक छुट्टियों के बिना काम। मेरे लिए कागज वही मानी रखता है, जो खेत तुम्हारे लिए। मेरे शब्द-मेरे दाने हैं। मेरी कविताएं-मेरे अनाज की बालें हैं।
-इसी किताब में रसूल ने पहाड़ी कहावतों का जिक्र करते हुए लिखा है-
कहते हैं- सबसे बड़ी मछली वह होती है जो कांटे से निकल जाए, सबसे मोटा पहाड़ी बकरा वह होता है जिस पर साधा हुआ निशाना चूक जाए, सबसे ज्यादा खूबसूरत औरत वह होती है जो तुम्हें छोड़ जाए।
-आफंदी कापीयेव के बहाने रसूल एक और दिलचस्प वाकया बयान करते हैं--
गर्मी के एक सुहाने दिन सुलेमान स्ताल्स्की अपने पहाड़ी घर की छत पर लेटा हुआ आसमान को ताक रहा था। आसपास पक्षी चहचहा रहे थे, झरने झर-झर कर रहे थे। हर कोई यही सोचता था कि सुलेमान आराम कर रहा है। उसकी बीवी ने भी ऐसा ही सोचा। छत पर चढ़कर उसने पति को आवाज दी---
खीनकाल तैयार हो गए। मैंने मेज पर भी लगा दिए हैं। खाने का वक्त हो गया।
सुलेमाल ने कोई जवाब नहीं दिया, सिर तक नहीं घुमाया।
कुछ देर बाद ऐना ने दूसरी बार पति को पुकारा-
खीनकाल ठंडे हुए जा रहे हैं। थोड़ी देर बाद खाने लायक नहीं रहेंगे।
सुलेमान हिला-डुला तक नहीं।
तब उसकी बीवी यह सोचकर कि पति नीचे नहीं आना चाहता, छत पर ही खाना ले आई। उसने यह कहते हुए उसकी तरफ तश्तरी बढ़ाई-
तुमने सुबह से कुछ नहीं खाया, देखो तो मैंने तुम्हारे लिए कैसे मजेदार खीनकाल तैयार किए हैं।
सुलेमान आपे से बाहर हो गया। वह अपनी जगह से उठा और चिंताशील पत्नी पर बरस पड़ा-
तुम तो हमेशा मेरे काम में खलल डालती रहती हो।
मगर तुम तो योंही बेकार लेटे हुए थे। मैंने सोचा...
नहीं मैं काम कर रहा हूं। फिर कभी मेरे काम में खलल नहीं डालना।
हां इसी दिन सुलेमान ने अपनी नई कविता रची थी।
तो जब कवि लेटा हुआ आकाश को ताकता है, तब भी काम कर रहा होता है।
-काम और शायद प्रतिभा से भी ज्यादा कवि के लिए दूसरों के और खुद अपने सामने भी ईमानदार होना जरूरी है।
-रसूल के पिता ने उन्हें बचपन में समझाया था- झूठ से ज्यादा खतरनाक कोई और चीज इस दुनिया में नहीं है।
-कहते हैं कि साहस यह नहीं पूछता कि चट्टान कितनी ऊंची है।
-मेरी यह बहुत बड़ी अभिलाषा है कि कागज के किसी टुकड़े पर ऐसे शब्द लिखे जाएं, जो अमृत की भांति उसका उस हरे-भरे और सजीव वृक्ष में कायाकल्प कर दें, जिससे कभी वह कागज बनाया गया था।
-आग नहीं जिंदगी नहीं।
-अपने दिल में आग को उसी तरह सहेजना चाहिए, जैसे हम बाहर की आम आग से अपने को सहेजते और बचाते हैं।
-युवतियां जब कंधों पर घड़े रखकर चश्मों की ओर जाती हैं तो युवक भी उन्हें देखने और अपने लिए दुल्हन चुनने की खातिर यहां आते हैं। न जाने कितनी
प्रेम भावनाएं जागी हैं इन चश्मों के पास, न जाने कितने भावी परिवारों के प्रणय और संबंध सूत्र यहां बने हैं।
-पिता जी कहा करते थे- बारिश तथा नदी के शोर से अधिक मधुर और कोई संगीत नहीं होता। बहते पानी की छल-छल सुनते और उसे देखते हुए कभी मन नहीं भरता।
-हाजी मुरात ऐसा कहा करता था-
मैदान यह देखने के लिए अपने पिछले पैरों पर खड़े हो गए कि कौन उनकी ओर आ रहा है। ऐसे पर्वतों का जन्म हुआ।
-पिता जी कहा करते थे कि अगर किसी आदमी को सागर सुंदर नहीं लगता तो इसका यही मतलब है कि वह आदमी खुद सुंदर नहीं है।
-कहते हैं कि पर्वत कभी आपस में लड़ने वाले अजगर थे। बाद में उन्होंने सागर को देखा और चकित होकर बुत बने रहे गए और पाषाणों में बदल गए।
-अम्मा अक्सर सीख दिया करती थीं- नाम से बड़ा कोई पुरस्कार नहीं, जिंदगी से बड़ा कोई खजाना नहीं। इसे सहेजकर रखो।
ये शब्द हमेशा से काफी अहम रहे हैं। तब से जब बचपन में मेरे पास बात करने के लिए कोई नहीं होता था। जब मां-पापा ऑफिस में होते थे और मुझे दिन के कई घंटे अकेले घर में बिताने होते थे। मैं सबसे पहले अपना होमवर्क पूरा करती और उसके बाद कोई भी किताब उठाकर पढ़ने लगती। शुरुआत में ये शौक इसलिए लगा ताकि मैं खुद को बड़ा महसूस कर पाऊं। बिलकुल उसी अंदाज में किताब हाथ में लेकर पढ़ पाऊं जैसे बड़े लोग पढ़ते हैं...फिर पढ़ते-पढ़ते वही किताबें बेस्ट फ्रेंड बन गईं। चंपक, चंदा मामा, चाचा चौधरी, सरिता, महकता आंचल तक न जाने कौन-कौन सी किताबों के पन्ने मैंने पलट लिए। यही सब मैग्जींस उन दिनों में घर में होती थी। या फिर मैं प़डोस में किसी भैय्या दीदी से उनके सिलेबस की लिटरेचर की किताबें ले आती थी। और कविता कहानियां पढ़ती रहती थी। बचपन का ये सिलसिला आज तक चल रहा है और किताबें आज भी सबसे अच्छी दोस्त हैं।
अपने एक ऐसे ही दोस्त से मिलवाने के लिए आज ये पोस्ट लिख रही हूं।
किताब का नाम है मेरा दागिस्तान।
-कास्पियन सागर के निकट, उत्तर-पूर्वी काकेशिया की पर्वतमालाओं के बीच स्थित है दागिस्तान। सोवियत संघ के जमाने में यह एक स्वायत सोवियत समाजवादी गणराज्य था और आज यह रूस का एक स्वायत्त गणराज्य है।
किताब के लेखक हैं रसूल हमजातोव
-दागिस्तान के कवियों में अगर पहला नाम हमजात त्सादासा का लिया जाता है तो दूसरा नाम है उन्हीं के बेटे रसूल हमजातोव का। रसूल हमजातोव मूलतः कवि थे, लेकिन उनके गद्य में भी एक सम्मोहक शक्ति है। इसकी मिसाल है ये किताब जो बाकी किताबों से इसलिए अलग है क्योंकि इसमें सिर्फ किताब पढ़ने का ही सुख नहीं मिलता...एक किताब के लिखे जाने की पूरी यात्रा और इस यात्रा में लेखक के जीवन में हुए तमाम घटनाक्रमों से परिचय होता है।
कैसे एक लेखक के दिमाग में किताब लिखने का ख्याल आता है?
कैसे वह एक किताब लिखना शुरू करता है?
वह एक साथ बैठकर एक ही बार में किताब लिख देता है या फिर अपने मूड के हिसाब से जब-तब लिखता रहता है?
कैसे वह अपनी किताब का नाम चुनता है?
वह उसे एक बेहतरीन और पठनीय किताब बनाने के लिए क्या करता है?
शब्दों की दुनिया के इस रोमांच से जुड़ी काफी दिलचस्प चीजें और किस्से इस किताब में हैं।
इस किताब के समंदर में मिले कुछ मोती
अगर तुम अतीत पर पिस्तौल से गोली चलाओगे,
तो भविष्य तुम पर तोप से गोले बरसाएगा।
-अबूतालिब
(सोवियत जन-कवि)
-जब आंख खुलती है,
तो बिस्तर से ऐसे लपककर मत उठो
मानों तुम्हें किसी ने डंक मार दिया हो।
तुमने जो कुछ सपने में देखा है,
पहले उस पर विचार कर लो।
-कविताएं जिन्हें जीवनभर दोहराया जाता है, एक बार ही लिखी जाती हैं।
-पूछा जा सकता है कि क्या उस शब्द को दुनिया में भेजना ठीक होगा, जो दिल से होकर नहीं आया।
-कहते हैं शब्द तो बारिश के समान होते हैं, एक बार- महान वरदान है, दूसरी बार-अच्छी रहती है, तीसरी बार- सहन हो सकती है, चौथी बार- दुख और मुसीबत बन जाती है।
-लेखक के लिए भाषा वैसे ही है, जैसे किसान के लिए फसल। हर बाली में बहुत से दाने होते हैं और इतनी अधिक बालियां होती हैं कि गिनना नामुमकिन। पर किसान अगर हाथ पर हाथ रखकर बैठा हुआ अपनी फसल को देखता रहे, तो एक भी दाना उसे नहीं मिलेगा। रई की फसल को काटना और फिर मांड़ना चाहिए। मगर इतने पर ही तो काम समाप्त नहीं हो जाता। मांडे अनाज को ओसाना और दानों को भूसे, घास-फूस से अलग करना जरूरी होता है। इसके बाद आटा पीसने, गूंधने और रोटी पकाने की जरूरत होती है, पर शायद सबसे ज्यादा जरूरी तो यह याद रखना होता है कि रोटी की चाहे कितनी भी अधिक जरूरत क्यों न हो, सारा अनाज इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। किसान सबसे अच्छे दानों को बीजों के रूप में इस्तेमाल करने के लिए रख लेता है। षा पर काम करने वाला लेखक सबसे अधिक तो किसान जैसा ही होता है।
-यह पूछते हैं कि अगले कुछ सालों में वह क्या लिखने का इरादा रखता है। यह सही है कि किस तरह की चीज वह लिखना चाहता है, उसकी कुछ मोटी-सी-रूप-रेखा लेखक के दिमाग में होती है। शायद वह यह योजना बना सकता है कि उपन्यास लिखेगा या तीन खंडों वाला बड़ा उपन्यास लिखेगा, मगर कविता...कविता तो अप्रत्याशित ही आती है, उपहार की तरह। कवि का धंधा योजनाओं के कठोर बंधनों को नहीं मानता। कोई अपने लिए इस तरह की योजना तो नहीं बना सकता- आज सुबह के दस बजे में सड़क पर मिल जाने वाली लड़की से प्रेम करने लगूंगा। या यह कि कल शाम के पांच बजे किसी नीच आदमी से नफरत करने लगूंगा।
-कविता गुलाबों के बगीचे या क्यारियों में खिलनेवाले फूलों के समान नहीं है। वहीं वे हमेशा हमारे सामने होते हैं- हम उन्हें खोजना नहीं पड़ता। कविता तो मैदानों, ऊंची चरागाहों में खिलनेवाले फूलों की तरह होती है। वहां हर कदम पर नया, अधिक सुंदर फूल पाने की आशा बनी रहती है।
-तुम्हारे जीवन में क्या ऐसी सीमा-रेखाएं, ऐसी हदें आई हैं, जो तुम्हें लांघनी पड़ी हों? मुझे एक ऐसी सीमा लांघनी पड़ी है-अपनी भावनाओं को गंभीरता पूर्वक समझे बिना मैंने प्यार किया है। बाद में मुझे इसके लिए पछताना पड़ा।
-मैं हर चीज को वैसे ही दोषहीन देखता हूं जैसे प्रेमी अपनी प्रेयसी को।
-सेब भिन्न-भिन्न किस्म के होते हैं। कुछ जल्दी पक जाते हैं और दूसरे सिर्फ पतझर में जाकर ही रसीले होते हैं। लगता है कि मैं पतझरवाली ही किस्म हूं।
-समय! दिनों से साल और सालों से सदियां बनती हैं। मगर युग क्या है? यह सदियों से बनता है या सालों से? या फिर एक दिन भी युग बन सकता है? वृक्ष पांच महीने तक हरा रहता है, मगर उसके सभी पत्तों को पीला करने के लिए एक दिन या एक रात ही काफी होती है। इसके उलट भी होता है। पांच महीनों तक वृक्ष निपत्ता और कोयले की तरह काला रहता है। उसे हरा-भरा करने के लिए एक उजली, सुहावनी सुबह ही काफी होती है। खुशी भरी एक सुबह ही उस पर फूल लाने के लिए काफी रहती है। ऐसे वृक्ष भी हैं जो हर महीने बाद अपना रंग बदलते हैं, और ऐसे भी हैं, जो कभी रंग नहीं बदलते। मौसमी पक्षी भी हैं, जो मौसम के मुताबिक सारी दुनिया में जहां-तहां उड़ते रहते हैं, और उकाब भी हैं, जो कभी अपने पहाड़ छोड़कर नहीं जाते। पक्षी हवा के रूख के खिलाफ उड़ना पसंद करते हैं। अच्छी मछली हमेशा धारा के विरुद्ध तैरती है। सच्चा कवि अपने हृदय का आदेश मानते हुए विश्व मत का विरोध करने से कभी नहीं झिझकता।
-मैंने बहुत से युवाजन देखे हैं, जो शादी करने से पहले अपने दिल से नहीं, बल्कि रिश्तेदारों, चाचा-चाचियों से सलाह-मशविरा करते हैं। अपने सृजय कार्य में लेखक की तो प्यार के बिना शादी हो ही नहीं सकती। चाची या मौसी की सलाह से हुई शादी के फलस्वरूप कम से कम जिंदा बच्चे तो होते हैं। बेशक ऐसा सुनने में आया है कि पति-पत्नी में जितना प्यार होता है, बच्चे उतने ही ज्यादा सुंदर होते हैं। मगर लेखक की प्रेमहीन शादी से तो मृत पुस्तकों का ही जन्म होता है। लेखक को अपने विषय से नाता जोड़ने के पहले यह सुन लेना चाहिए कि उसका दिल क्या कहता है।
-अवार लोगों में यह कहा जाता है कि संसार की रचना के एक सौ बरस पहले ही कवि का जन्म हुआ था। इस तरह वे शायद यह कहना चाहते हैं कि यदि कवि संसार की रचना में हिस्सा न लेता, तो दुनिया इतनी सुंदर न बनती।
-मेरे तो समूचे जीवन के लिए ही कविता नमक के समान रही है। उसके बिना मेरा जीवन फीका और बेजायका होता। हम पहाड़ी लोग मेज पर खाना लगाते समय नमकदानी रखना कभी नहीं भूलते।
-कविता-तेज घुड़सवारी है और गद्य- पैदल यात्रा।
-जब रसूल हमजातोव ने पहली बार गद्य लिखना शुरू किया तब कविता के बारे में उनके विचार-
कविता क्या तुम नहीं जानतीं कि मैं कभी तुमसे अलग नहीं हो सकता? क्या मैं अपने अंतर में जन्म लेने वाली सभी खुशियों, सभी आंसुओं से अलग हो सकता हूं? तुम उस लड़की जैसी हो, जिसका जन्म तब हुआ, जब सभी लड़के की राह देख रहे थे। तुम उस लड़की के समान हो, जो पैदा होकर खुद ही अपने बारे में यह कहे- मैं जानती हूं कि आप लोग मेरा इंतजार नहीं कर रहे थे और फिलहाल आपमें से कोई भी मुझे प्यार नहीं करता। पर कोई बात नहीं, मुझे जरा बड़ी होने और खिलने दो, चोटियां गूंथने और गीत गाने दो। तब देखेंगे कि क्या इस दुनिया में कोई ऐसा आदमी है जो मुझे प्यार न करने की हिम्मत करेगा।
-कविता के बिना पहाड़ विराट पत्थर बन जाएंगे, बारिश परेशान करने वाले पानी और डबरों में बदल जाएगी और सूर्य गर्मी देने वाला अंतरिक्षीय पिंड बनकर रह जाएगा।
-यह बात बहुत बाद में मेरी समझ में आई कि अकवि इस दुनिया में कोई नहीं है। हर व्यक्ति की आत्मा में कुछ कवि बसा हुआ है।
-पहली बार प्यार करने वाली जवान पहाड़ी लड़की ने सुबह खिड़की में से बाहर झांका, तो खुशी से चिल्ला उठी-
इन वृक्षों पर कितने सुंदर फूल आ गए हैं?
वृक्षों पर तुम्हें फूल कहां नजर आ रहे हैं? उसकी बूढ़ी मां ने आपत्ति की। यह तो बर्फ है, पतझर का अंत और ज़ाडे का आरंभ हो रहा है।
सुबह एक ही थी, मगर एक नारी के लिए वसंत की और दूसरी के लिए जाड़े की।
-खुशकिस्मती से मैं जल्द ही यह समझ गया कि कविता और चालाकी ऐसी दो तलवारें हैं, जो एक म्यान में नहीं समा सकतीं।
-एक रूसी कहावत के अनुसार-
बीस साल की उम्र में अगर ताकत नहीं तो इंतजार नहीं करो, वह नहीं आएगी। तीस साल की उम्र में अगर अक्ल नहीं है, तो इंतजार नहीं करो वह नहीं आएगी। चालीस की उम्र में अगर धन नहीं-तो इंतजार नहीं करो, वह नहीं आएगा।
-पिता जी कहा करते थे-
ऐसे सूखो नहीं कि अकड़कर टूट जाओ, मगर इतने गीले भी नहीं होवो कि चीथड़े की तरह तुम्हें निचोड़ लिया जाए।
-रसूल मुझे यह बताओ कि सिगरेट दूसरी सभी चीजों से किस बात में भिन्न है?
मालूम नहीं
बाकी सभी चीजों को खींचा जाता है तो, वे लंबी हो जाती हैं और यह उलटे छोटी रह जाती है।
अबूतालिब रसूल को बता रहे हैं-
मेरी जिंदगी में सबसे ज्यादा खुशी का दिन तब आया था, जब मैं ग्यारह साल का था और बछड़े चराता था। मेरे पिता ने जिंदगी में पहली बार मुझे जूते भेंट किए। वे नए जूते पाकर मेरी आत्मा में गर्व की जो भावना पैदा हुई, उसे बयान करने के लिए शब्द नहीं मिल सकते। मैं अब बेधड़क उन खड्डों में और उन पगडंडियों पर जाता, जहां एक ही दिन पहले नुकीले, ठंडे पत्थरों से मेरे पांव जख्मी हो जाते थे। अब मैं दृंढ़ता से इन पत्थरों पर पैर रखता, न दर्द और न ठंड महसूस करता। मेरी खुशी तीन दिन तक बनी रही और उनके बाद मेरी जिंदगी के सबसे कड़वे मिनट आए। चौथे दिन पिता जी बोले- सुनो अबूतालिब तुम्हारे पास अब नए मजबूत जूते हैं, तुम्हारे पास लाठी है और ग्यारह साल तक तुम इस धरती पर जी भी चुके हो। वक्त आ गया है कि अपनी
रोजी-रोटी की फिक्र में अब तुम अपनी राह पकड़ो। उस वक्त मेरे दिल पर जैसी गुजरी, वैसी तो बाकी सारी जिंदगी में कभी भी नहीं गुजरी।
-तीसरी बीवी का किस्सा
एक नौजवान दागिस्तानी कवि मास्को के साहित्य-संस्थान में पढ़ने गया। एक साल बीता, तो अचानक उसने एक ऐलान कर दिया कि अपनी बीवी, दूरस्थ पहाड़ी औरत को तलाक दे रहा है। किसलिए तलाक दे रहे हो? हमने उससे पूछा? बहुत अर्सा नहीं हुआ तुम्हें शादी किए और जहां तक हमें मालूम है तुमने उससे इसलिए शादी की थी कि तुम उससे प्रेम करते थे। तो अब क्या हो गया? हमारे बीच अब कुछ भी तो सामान्य नहीं है। वह शेक्सपीयर से अपरिचित है, उसने येव्गेनी ओनेगिन नहीं पढ़ा, उसे यह मालूम नहीं कि लेक स्कूल किसे कहते हैं और उसने मेरिमे के बारे में कभी नहीं सुना। कुछ ही समय बाद नौजवान कवि मास्कोवासिनी पत्नी के साथ, जिसने संभवतः मेरिमे और शेक्सपीयर के बारे में सुना था, मखचकला आया। हमारे शहर में वह सिर्फ एक साल रही और फिर उसे मास्को लौटना पड़ा, क्योंकि पति ने उसे तलाक दे दिया था। तुमने उसे तलाक क्यों दे दिया? हमने उससे पूछा? तुमने हाल ही में शादी की थी और वह भी इसलिए कि उसे प्यार करते थे। तो अब क्या हो गया? इसलिए कि हमारे बीच कुछ भी तो सामान्य नहीं था। वह अवार भाषा का एक भी शब्द नहीं जानती, अवार रीति-रिवाजों से अपरिचित है, पहाड़ी लोगों, मेरे हमवतनों का मिजाज नहीं समझती उसे उनका अपने घर में आना अच्छा नहीं लगता। वह एक भी अवार कहावत, अवार पहेली या गीत नहीं जानती।
तो अब तुम क्या करोगे
शायद तीसरी बार शादी करनी पड़ेगी।
-पिता जी कहा करते थे
जिस साहित्यिक रचना में लेखक स्पष्ट दिखाई नहीं देता, वह सवार के बिना भागे जाते घोड़े के समान है।
-सभी को मालूम होता है कि उन्हें क्या चाहिए, मगर सभी उसे हासिल नहीं कर पाते। सभी अपनी मंजिल जानते हैं पर वहां तक सभी नहीं पहुंचते।। ऐसे भी लोग हैं, जिन्हें ऐसा लगता है कि उन्हें यह मालूम है कि किताब कैसे लिखनी चाहिए, मगर वे उसे लिख नहीं पाते।
-कहते हैं कि एक ही सुई फ्रॉक और मुर्दे का कफन सीती है।
-कहते हैं कि वह दरवाजा नहीं खोलो, जिसे बाद में बंद नहीं कर सको।
-प्रतिभा या तो है, या नहीं। उसे न तो कोई दे सकता है, न ले सकता है। प्रतिभाशाली तो पैदा ही होना चाहिए। प्रतिभा विरासत में नहीं मिलती, वरना
-कला-क्षेत्र में वंशों का बोलबाला होता। बुद्धिमान के यहां अक्सर मूर्ख बेटा पैदा होता है और मूर्ख का बेटा बुद्धिमान हो सकता है। प्रतिभा बड़ी दुर्लभ होती है, अप्रत्याशित ही आती है और इसीलिए वह बिजली की कौंध, इंद्गधनुष अथवा गर्मा से बुरी तरह झुलसे और उम्मीद छोड़ चुके रेगिस्तान में अचानक आने वाली बारिश की तरह आश्चर्यचकित कर देती है।
-अबूतालिब और खातिमत का किस्सा-
अबूतालिब शुरू में भेड़ें चराते रहे। इसके बाद वे टीनगर बन गए। मगर चरवाहे की अपनी मुरली वे तब भी अपने साथ ही रखते और फुरसत के वक्त उसे बजाते। अपने धंधे के सिलसिले में वे गांव-गांव जाते। कुछ लोगों का कहना है कि कूली गांव में और दूसरों के मुताबिक गूमूक में खातिमत नाम की एक लड़की
गागर की मरम्मत कराने के लिए अबूतालिब के पास आई।।
बहुत देर तक अबूतालिब उस गागर की मरम्मत करते रहे। कभी वे उसे एक तरफ रखकर इत्मीनान से सिगरेट पीने लगते, तो कभी मुरली बजाना शुरू करते
और कभी खातिमत को झूठे-सच्चे किस्से-कहानियां सुनाने लगते।
खातिमत उससे जल्दी करने को कहती हुई चिल्लाई-
तुम अपनी सिगरेट ही कुछ कम लंबी लपेटो।
अरे, यह तुम क्या कह रही हो, मेरी प्यारी खातिमत। अब मैं गज भर लंबी सिगरेट बनाऊंगा ताकि वह और ज्यादा देर तक जलती रहे।
आखिर लड़की बिलकुल ही आपे से बाहर हो गई और अबूतालिब को मजबूर होकर गागर उसे लौटानी पड़ी। गागर ऐसे चमचम करती थी मानो नई हो। इतनी अधिक कोशिश से अबूतालिब ने उसकी मरम्मत की थी। मगर लड़की ने जैसे ही उसमें पानी भरा कि वह चूने लगी। गुस्से से भुनभुनाती, बड़ी मुश्किल से अपने
दुख के आंसुओं को रोकती हुई वह फिर से अबूतालिब के पास आई।
इतनी देर तक तुमने गागर की मरम्मत की और वह पहले से भी ज्यादा चूती है।
अल्लाह करे कि दिलेर और खूबसूरत लड़के हर दिन तुम्हारी गागर पर कंकड़ फेंके। तुम नाराज क्यों हो रही हो, खातिमत, मैंने तो जान-बूझकर उसमें सूराख छोड़ दिया था ताकि तुम फिर से मेरे पास आओ और मैं तुम्हें देख सकूं। अच्छा हो कि लड़के मेरी गागर पर नहीं, तुम्हारे सिर पर कंकड़ फेंके। खातिमत चिल्लाई और फिर कभी अबूतालिब के पास नहीं आई। अबूतालिब को उसकी बड़ी याद आती। खातिमत के प्रति उनका प्यार बढ़ता ही चला गया। प्यार जितना बढ़ा, याद उतनी ही ज्यादा सताने लगी। इस तरह उस लड़की की याद में घुलते हुए अबूतालिब ने एक गीत रचा, जिसमें उन्होंने खातिमत और उसके प्रति अपने प्यार को अभिव्यक्ति दी। इसके बाद उन्होंने दूसरा फिर दसवां फिर बीसवां गीत रचा और इस तरह से टीनगर की जगह जाने-माने कवि बन गए। इसी बीच खातिमत ने हाली नाम के एक आदमी से शादी कर ली। कुछ अर्से बाद उसे तलाक देकर किसी मूसा की बीवी बन गई।
एक दिन ख्यातिलब्ध कवि अबूतालिब बाजार में से जा रहे थे, तो किसी ने उन्हें आवाज दी।
ए अबूतालिब गागर की मरम्मत नहीं कर दोगे?
कवि ने मुड़कर देखा तो बूढ़ी झूकी हुई और बीमार खातिमत को अपने सामने पाया।
शायद अब तुम्हारा दिमाग आसमान पर जा चढ़ा है, अबूतालिब।
ऐसा तो होना ही था, अब तुम सर्वोच्च सोवियत के सदस्य हो, तमगा लगाए हो। लगता है कि अपना टीनगरी का धंधा भूल गए हो, पर अगर मामले की गहराई में जाया जाए, तो मैंने ही तुम्हें कवि बनाया है, अबूतालिब। उस वक्त अगर मैं मरम्मत के लिए गागर तुम्हारे पास न लाती, तो तुम अभी तक उसी तरह बाजार में बैठे हुए टीनगरी करते होते। ओ खातिमत, अगर तुममें सचमुच ऐसी ताकत है, अगर तुम सचमुच ही लोगों को कवि बना सकती हो, तो तुमने अपने पहले पति मिलीशियामैन हाली को क्यों नहीं कवि बना दिया? और हां तुम्हारे दूसरे पति मूसा के गीत भी अब तक सुनने को नहीं मिले।
अबूतालिब चले भी गए, मगर खातिमत यह न समझ पाते हुए कि क्या जवाब दे, जहां की तहां मुंह बाए खड़ी थी। बारिश की बूंदों से ही वह संभली।
तो इस तरह अगर कोई खुद ही शायर नहीं बनता, तो किसी भी दूसरे आदमी में उसे शायर बनाने की ताकत नहीं है।
-रसूल एक किस्सा सुनाते हैं जो उनके पिता जी ने उन्हें काफी बाद में बताया था। उनके एक पुराने मित्र, दागिस्तान के एक प्रसिद्ध और सम्मानित व्यक्ति ने उनसे कहा-
बहुत अच्छा हो कि रसूल अब किसी को जी-जान से प्यार करने लगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि अपने प्यार से उसे खुशी मिलेगी या गम उसमें उसे कामयाबी होगी या नाकायाबी। शायद यह तो ज्यादा अच्छा ही होगा कि दूसरी तरफ से उसे प्यार न मिले कि प्यार उसके लिए पीड़ा और वेदना ही लेकर आए। तब वह एकदम बड़ा कवि बन जाएगा।
-दिल से प्यार करने के लिए भी प्रतिभा की जरूरत होती है। प्रतिभा को प्यार की जितनी जरूरत है, शायद प्यार को प्रतिभा की उससे कहीं अधिक आवश्यकता है। इसमें कोई शक नहीं कि प्यार से प्रतिभा पनपती है, मगर वह उसकी जगह नहीं ले सकता। प्रेम के प्रतिकूल भावना यानी घृणा के बारे में भी मैं यही कह सकता हूं।
-उसकी बेचैन और अलंकारी भावनाएं उसी तरह अपना मार्ग खोज लेतीं जैसे घास की कोमल-सी पत्ती नम, बोझिल और अंधेरी मिट्टी में से सूरज की ओर अपना रास्ता बना लेती है। अरे कभी-कभी तो वह पत्थर के नीचे से भी बाहर निकल जाती है।
-शायद प्रतिभा जीवन के लंबे अनुभव से पनपती है? और कला में प्रतिभा का व्यक्त होना विस्तृत ज्ञान, कठिन भाग्यों तथा महान कार्यों का परिणाम है।
-युद्ध से पृथ्वी पर लोग नहीं बढ़ते, मगर उससे वीरों की संख्या बढ़ जाती है।
-जीवन की सीमाएं हैं, वह छोटा है और कल्पनाएं हैं असीम। खुद मैं अभी सड़क पर चला जा रहा हूं, मगर कल्पना घर पर पहुंच चुकी है। खुद मैं प्रेमिका के घर जा रहा हूं, मगर कल्पना उसकी बांहों में भी पहुंच तुकी है। खुद मैं इस वक्त सांस ले रहा हूं, मगर कल्पना कई साल आगे पहुंच जाती है। वह उन सीमाओं से भी दूर पहुंच जाती है, जहां जीवन अंधेरे में जाकर खत्म हो जाता है। कल्पना अगली सदियों की उड़ान भरती है।
-अगर लिखे भी रह सकते हो, तो न लिखो।
क्या मैं लिखे बिना रह सकता हूं? रोगी को जब बहुत पीड़ा होती है, तो क्या वह कराहे बिना रह सकता है? क्या कोई सुखी आदमी मुस्कुराए बिना रह सकता है? क्या बुलबुल चांदनी रात की निस्तब्धता में गाए बिना रह सकती है? जब नम और गर्म मिट्टी में बीज फूट चुका है तो घास बिना बढ़े कैसे रह सकती है? वसंत का सूरज जब कलियों को गर्माता है, तो फूल कैसे खिले बिना रह सकते हैं? जब बर्फ पिघल जाती है और पत्थरों से टकराता तथा शोर मचाता हुआ पानी नीचे बहने लगता है तो पहाडी नदियां सागर की ओर बहे बिना कैसे रह सकती हैं? टहनियां अगर सूख चुकी हों और उनमें शोला भड़क चुका हो, तो अलाव जले बिना कैसे रह सकता है।
-एक बार रसूल से किसी ने पूछा-
तुम्हारे पिता हमजात कविता रचते थे। तुम, हमजात के बेटे भी कविता लिखते हो। तुम काम कब करोगे? या तुम रोटी के टुकड़े से कुछ अधिक भारी चीज उठाए बिना ही अपनी सारी जिंदगी बिता देने का इरादा रखते हो?
कविता ही तो मेरा काम है, मैंने यथाशक्ति धीरज से जवाब दिया। बातचीत के ऐसे रुख ले लेने पर मैं सकते में आ गया था।
-अगर कविता लिखना ही काम है, तो निठल्लापन किसे कहते हैं? अगर गीत ही श्रम है, तो मौज और मनोरंजन क्या है?
गीत गाने वालों के लिए वह सचमुच मनोरंजन हैं, मगर जो उन्हें रचते हैं उनके लिए वही काम है। नींद और आराम, साप्ताहिक और वार्षिक छुट्टियों के बिना काम। मेरे लिए कागज वही मानी रखता है, जो खेत तुम्हारे लिए। मेरे शब्द-मेरे दाने हैं। मेरी कविताएं-मेरे अनाज की बालें हैं।
-इसी किताब में रसूल ने पहाड़ी कहावतों का जिक्र करते हुए लिखा है-
कहते हैं- सबसे बड़ी मछली वह होती है जो कांटे से निकल जाए, सबसे मोटा पहाड़ी बकरा वह होता है जिस पर साधा हुआ निशाना चूक जाए, सबसे ज्यादा खूबसूरत औरत वह होती है जो तुम्हें छोड़ जाए।
-आफंदी कापीयेव के बहाने रसूल एक और दिलचस्प वाकया बयान करते हैं--
गर्मी के एक सुहाने दिन सुलेमान स्ताल्स्की अपने पहाड़ी घर की छत पर लेटा हुआ आसमान को ताक रहा था। आसपास पक्षी चहचहा रहे थे, झरने झर-झर कर रहे थे। हर कोई यही सोचता था कि सुलेमान आराम कर रहा है। उसकी बीवी ने भी ऐसा ही सोचा। छत पर चढ़कर उसने पति को आवाज दी---
खीनकाल तैयार हो गए। मैंने मेज पर भी लगा दिए हैं। खाने का वक्त हो गया।
सुलेमाल ने कोई जवाब नहीं दिया, सिर तक नहीं घुमाया।
कुछ देर बाद ऐना ने दूसरी बार पति को पुकारा-
खीनकाल ठंडे हुए जा रहे हैं। थोड़ी देर बाद खाने लायक नहीं रहेंगे।
सुलेमान हिला-डुला तक नहीं।
तब उसकी बीवी यह सोचकर कि पति नीचे नहीं आना चाहता, छत पर ही खाना ले आई। उसने यह कहते हुए उसकी तरफ तश्तरी बढ़ाई-
तुमने सुबह से कुछ नहीं खाया, देखो तो मैंने तुम्हारे लिए कैसे मजेदार खीनकाल तैयार किए हैं।
सुलेमान आपे से बाहर हो गया। वह अपनी जगह से उठा और चिंताशील पत्नी पर बरस पड़ा-
तुम तो हमेशा मेरे काम में खलल डालती रहती हो।
मगर तुम तो योंही बेकार लेटे हुए थे। मैंने सोचा...
नहीं मैं काम कर रहा हूं। फिर कभी मेरे काम में खलल नहीं डालना।
हां इसी दिन सुलेमान ने अपनी नई कविता रची थी।
तो जब कवि लेटा हुआ आकाश को ताकता है, तब भी काम कर रहा होता है।
-काम और शायद प्रतिभा से भी ज्यादा कवि के लिए दूसरों के और खुद अपने सामने भी ईमानदार होना जरूरी है।
-रसूल के पिता ने उन्हें बचपन में समझाया था- झूठ से ज्यादा खतरनाक कोई और चीज इस दुनिया में नहीं है।
-कहते हैं कि साहस यह नहीं पूछता कि चट्टान कितनी ऊंची है।
-मेरी यह बहुत बड़ी अभिलाषा है कि कागज के किसी टुकड़े पर ऐसे शब्द लिखे जाएं, जो अमृत की भांति उसका उस हरे-भरे और सजीव वृक्ष में कायाकल्प कर दें, जिससे कभी वह कागज बनाया गया था।
-आग नहीं जिंदगी नहीं।
-अपने दिल में आग को उसी तरह सहेजना चाहिए, जैसे हम बाहर की आम आग से अपने को सहेजते और बचाते हैं।
-युवतियां जब कंधों पर घड़े रखकर चश्मों की ओर जाती हैं तो युवक भी उन्हें देखने और अपने लिए दुल्हन चुनने की खातिर यहां आते हैं। न जाने कितनी
प्रेम भावनाएं जागी हैं इन चश्मों के पास, न जाने कितने भावी परिवारों के प्रणय और संबंध सूत्र यहां बने हैं।
-पिता जी कहा करते थे- बारिश तथा नदी के शोर से अधिक मधुर और कोई संगीत नहीं होता। बहते पानी की छल-छल सुनते और उसे देखते हुए कभी मन नहीं भरता।
-हाजी मुरात ऐसा कहा करता था-
मैदान यह देखने के लिए अपने पिछले पैरों पर खड़े हो गए कि कौन उनकी ओर आ रहा है। ऐसे पर्वतों का जन्म हुआ।
-पिता जी कहा करते थे कि अगर किसी आदमी को सागर सुंदर नहीं लगता तो इसका यही मतलब है कि वह आदमी खुद सुंदर नहीं है।
-कहते हैं कि पर्वत कभी आपस में लड़ने वाले अजगर थे। बाद में उन्होंने सागर को देखा और चकित होकर बुत बने रहे गए और पाषाणों में बदल गए।
-अम्मा अक्सर सीख दिया करती थीं- नाम से बड़ा कोई पुरस्कार नहीं, जिंदगी से बड़ा कोई खजाना नहीं। इसे सहेजकर रखो।