रविवार, 17 मार्च 2013

कुछ छोटी कविताएं

दुख
तुम एक घना जंगल हो कविताओं का।


आंसू
मैं चाहती हूं कि तुम मेरे जेहन में जाकर कहीं छिप जाओ
और भीतर से इतना गिला कर दो मुझे कि कोई गम
सोख न पाए।


शिकार
मैं नहीं करना चाहती तुमसे प्यारमुझे डर है कि तुम मेरी नफरतों का शिकार हो जाओगे।


धोखा
हम थक चुके हैं
प्यार कर-कर के
और उसके बाद
दिल में नफरत भर-भर के
आओ, एक-दूसरे को धोखा देने के लिए
हम एक-दूसरे के करीब आएं अब।


मैं
पतंग भी मैं
डोर भी मेरे हाथ में
उड़ान भी मेरी
आकाश भी मेरा
और अब कट-कट कर
गिर भी रही हूं मैं।

4 टिप्‍पणियां:

संजय भास्‍कर ने कहा…

वाह!!!वाह!!! क्या कहने, बेहद उम्दा

संजय भास्‍कर ने कहा…

Beautiful as always.
It is pleasure reading your poems.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सभी क्षणिकाएं बहुत प्रभावी ...
लाजवाब भाव लिए ...

बेनामी ने कहा…

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