24 साल के इस सफर में जिंदगी ने कई बार उलझाया। कई बार हालात के दलदल में फंसाया। कई मरतबा ऐसा हुआ कि सोचने और समझने की ताकत नहीं रही। फिर भी बीते कुछ दिनों में मेरे सामने आने वाली चीजें न जाने क्यों मुझे हर बीती हुई मुश्किल से भी ज्यादा कठिन लगी। हाथ में कागज, कलम, लेपटॉप कुछ नहीं था और मन में शब्दों का तेज ज्वार भाटा। मैंने किसी दोस्त का फोन नहीं लिया, किसी से बात नहीं की। न टीवी, न रेडियो, न अखबार कुछ नहीं था पास। कुछ मालूम नहीं था कि दुनिया में हो क्या रहा है। दिख रहा था तो बस इतना कि जिंदगी में जो हो रहा है वो नहीं होना चाहिए। हो रहा है तो उसका हल मिलना चाहिए। मगर कुछ नहीं मिला। जिस पटरी पर चलते-चलते गाड़ी रुक गई थी, उस पर बहुत देर रुकी रहने के बाद फिर से घिसटने लगी। अब कोई सोचे कि ऐसा भी क्या मामला था तो इस बारे में मैं कुछ नहीं लिख सकती। मुझे हमेशा से लगता आया है कि अपनी निजी जिंदगी और पारिवारिक मसलों के बारे में दूसरों से ज्यादा बातचीत नहीं करनी चाहिए। लगता आया है या मां की सीख का असर है शायद। मैं इतना सब भी नहीं लिखती... अगर तीन बाद अखबार देखते ही मेरे सामने दरिंदगी की वो घटना न आई होती।
मैं स्तब्ध थी पढ़कर।
नहीं महसूस कर सकती कि वो कैसी होगी सहकर।
मैं बहुत भावुक हूं। बहुत कुछ लिखती विखती रहती हूं, लेकिन मेरे अंदर उठ रहा शब्दों का सारा ज्वार भाटा अचानक आकाश और धरती के बीच ही कहीं अपनी जगह बनाकर रुक गया है।
जैसे बचपन में हम दोस्तों को स्टेच्यू बोलकर कई देर के लिए ज्यों का त्यों छोड़ देते थे।
मेरी भावनाएं ऐसे सूख गई हैं जैसे उड़ीसा के कालाहांडी का अकाल।
न मैं कैंडल मार्च कर सकती हूं।
न हाथ में पोस्टर लेकर चिल्ला सकती हूं।
मेरा कुछ भी लिखना या करना इस स्थिति के लिए शायद किसी काम का नहीं है।
मगर इतना कहना जरूरी लगता है कि
प्रताड़ना के इस शोर के बीच क्या अपराधियों को सजा की मांग या उससे जु़ड़ी किसी चिल्लाहट की गुंजाइश बचती है?
क्या चोट पहुंचाने वाले से पूछने के बाद उसे मारा जाता है?
क्या इस देश में जिसे भारत कहते हैं सिर्फ खोखली भावनाओं का लबादा ओढ़ने की ताकत है या फिर वो हिम्मत भी जिसके दम पर किसी को इंसाफ मिल सके और दु्निया को सबक।
मेरी आंखों के सामने ऐसे कई सवालों का बहुत बड़ा घेरा है। ऐसे सवाल, जिनके जवाबों पर पुलिस, पार्टी, पॉलिटिक्स और प्रशासन की न जाने कितनी मकड़ियां बैठी हैं।
मगर मैं अब सिर्फ एक लाइव सीन देखना चाहती हूं।
जिसमें लाइट कैमरा और एक्शन बोलेत ही अपराधी के पैरों के नीचे से जमीन खींच ली जाए। फंदा उसके गले के ऊपरी छोर को छूकर बाहर निकलने की कोशिश करे, मगर निकल न पाए।
1 टिप्पणी:
महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में लाख किशन आत्महत्या कर चुके है कितने बच्चे कुपोसंद से मर रहे है उसका क्या himani ji
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