'वास्तविक प्रेम मौन होता है'। अज्ञेय के उपन्यास ‘शेखर एक जीवनी’ में ये लाइन पढ़ने के बाद मैं फूली नहीं समाई थी। आत्ममुग्ध नाम का अगर कोई शब्द होता है, तो मैं आत्ममुग्ध हो गई थी। मुझे लगा कि मैंने भी वास्तविक प्रेम किया है। मुझे ऐसा इसलिए लगा था, क्योंकि तीसरी क्लास में मुझे अपनी क्लास का एक लड़का बहुत अच्छा लगता था। जिसे मैंने ये बात कभी बताई ही नहीं। अब तक नहीं बताई, कई दफा सामने होने के बाद भी नहीं बताई। मैं चुप रही और एक बड़े लेखक के मशहूर उपन्यास में ये बात पढ़ने के बाद वो अच्छा लगना..... मुझे प्रेम की तरह लगा और अपनी ये चुप्पी.... उसी महान मौन की तरह, जो प्रेम के वास्तविक होने का सबूत होता है। हालांकि उपन्यास पढ़ने के बाद से लेकर अब तक उस फूले न समाने वाली फीलिंग में कई सारे छेद हो चुके थे, क्योंकि जब किताबों से बाहर की दुनिया देखी तो हर तरफ प्रेम-प्रेम का शोर ही दिखाई दिया, मौन कहीं नहीं। लेकिन मेरे मौन की इस कहानी में एक क्लाइमेक्स आया, हाल ही में......अभी एक दिन पहले। मुझे अचानक महसूस हुआ कि वो सारे छेद भरने लगे हैं (माफ करना यहां मैं बिंब बनाते हुए शायद अतिवादी हो रही हूं) जानते हैं ऐसा कब और क्यों हुआ.......................ये तब हुआ जब मैंने बर्फी देखी। बर्फी ......यानी अनुराग बासु की हाल ही में आई एक फिल्म जिसे प्रियंका चोपड़ा और रणबीर कपूर ने अपने शानदार नहीं जानदार अभिनय से सजाया नहीं जमाया है और उनके साथ इलेना डीक्रूज के नरेशन ने कहानी को बेहतरीन फ्लो दिया है। 'बचपन से ही मेरे लिए प्यार का मतलब था किसी के साथ हर पल जीना और साथ में ही मर जाना' , जब इलेना इस लाइन के साथ कहानी की शुरुआत करती हैं तो लगता है कि ये कहानी श्रेया(इलेना) और बर्फी (रणबीर) की है जो एक दूसरे से प्यार करते थे और किसी वजह से साथ-साथ नहीं रह पाए। फिर जब बर्फी की पहली झलक मिलती है तो न जाने क्यों चार्ली चैप्लिन की छवि दिमाग में आने लगती है। अब जब चार्ली चैप्लिन की छवि दिमाग में आ गई हो तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि रणबीर की अदाकारी में कुछ खास बात रही होगी। रॉकस्टार में उनकी आवाज की कहानी के बाद बर्फी में उनकी खामोशी की दास्तां को सुनना, देखना और महसूस करना उनके अभिनय के कई रंगों का साक्षी होने जैसा है। (बेशक मुझे निजी तौर पर रणबीर बहुत ज्यादा पसंद नहीं हैं)। काफी देर तक फिल्म में रणबीर और इलेन के परिवार, उनका मिलना, प्रेम करना और बिछड़ना देखते हुए ये सवाल उठता रहता है कि फिल्म में प्रियंका का क्या रोल होगा? क्या प्रियंका कोई साइड रोल प्ले कर रही हैं? रणबीर, इलेन के साथ हैं तो प्रियंका किसके साथ होंगी। बिल्कुल एक आम दर्शक की तरह ये सारे सवाल सामने आ ही रहे थे कि फिल्म में एक तसवीर के साथ प्रियंका का नाम सामने आता है-झिलमिल। दार्जिलिंग के बेहद अमीर आदमी की नाती जिसे ऑटिस्टिक होने की वजह से उसके मां-बाप अनाथालय भेज देते हैं, लेकिन उसके नाना पूरी जायदाद उसके ही नाम करके मर जाते हैं और फिर शुरू होती है झिलमिल की असली कहानी। जिस तरह से झिलमिल का रोल लिखा गया है बिल्कुल उसी तरह इस फिल्म में बेहद सादगी के साथ प्रियंका के खूबसूरत फीचर्स का इस्तेमाल भी हुआ है। इसके लिए मेकअप आर्टिस्ट को भी श्रेय दिया जाना चाहिए। सच मानिए तो मेरे लिए फिल्म का असली मतलब तभी शुरू होता है जब फिल्म में झिलमिल की एंट्री होती है। हालांकि काफी देर तक झिलमिल फिल्म के एक अलग हिस्से के रूप में ही रहती है। लेकिन जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है, कहानी की पूरी बागडोर उस अलग हुए हिस्से पर ही आ जाती है। बर्फी के पिता की बीमारी, पैसों की तंगी में बर्फी का झिलमिल को किडनैप करना और फिर झिलमिल के पिता का उसे किडनैप करवाना और इस सस्पेंस, कॉमेडी और थ्रिल के बीच धीरे से, चुपके से कहीं झिलमिल और बर्फी की लव स्टोरी की शुरू होना बिल्कुल मौन की तरह देखने वाले को धीरे-धीरे अपनी तरफ खींचने लगता है। इस बीच में रणबीर की खामोशी को म्यूजिक बीट्स के जरिए जिस तरह दिलों में उतारा गया है उसे भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। झिलमिल और बर्फी की प्रेम कहानी दो लोगों की एक ऐसी कहानी है जो बोल और सुन नहीं सकते। इस मजबूरी की मिट्टी पर प्रेम को पनपाने के लिए जिस तरह के बिंब दिखाए गए हैं उन्हें बेहतरीन क्रिएटिविटी की श्रेणी में रखा जा सकता है। एक दूसरे को शीशे से परछाई बनाकर बुलाना, हाथ की कनी उंगली में उंगली डालकर एक दूसरे की नजदीकी को महसूस करना, दूसरे लोगों से अलग होते हुए भी एक आम जिंदगी जीने की सारी कोशिशों को अंजाम देना। जो झिलमिल टॉयलेट जाने से पहले नाड़ा बर्फी से खुलवाती है वो प्यार में होकर साड़ी बांधने की प्रेक्टिस करने लगती है, जो झिलमिल हर काम के लिए नौकरों पर निर्भर थी वो दिल से पति मान चुके बर्फी के लिए खाना बनाती है और खाने खाते हुए उसे एक आम देहाती औरत की तरह पंखे से हवा करती है। इन सारे छोटे-छोटे दृश्यों ने मिलकर कई बार कहानी के भीतर पैदा हो रहे सीलेपन को दर्शक की आंखों तक पहुंचाया और फिर अचानक ही बर्फी की खामोश कॉमेडी से होंठो पर सरका दिया। इस बीच इलेना का नरेशन कहानी में जारी रहा और साथ ही उसकी अपनी कहानी भी। बेशक कहानी में लव ट्राइंगल था, लेकिन यहां असल प्यार वहीं नजर आया जहां लोग सामान्य नहीं थे यानी झिलमिल और बर्फी। इलेना जो सामान्य लड़की थी औरबर्फी से प्यार करती थी कभी उस प्यार को चुन नहीं पाई। क्योंकि चुनने से पहले उसने काफी सोचा, मां को बताया, मां से पूछा और मां(रूपा गांगुली) ने एक आदर्श भारतीय नारी की तरह उसे अपने नक्शे कदम पर चलने के लिए कहा। अपने नक्शे कदम यानी एक अच्छे खासे शरीर और पैसे वाले आदमी से शादी करने के लिए। मां को मंजूर था कि जिस तरह वो बुढ़ापे तक अपने प्रेमी को छुप-छुप कर देखती हैं उसके ख्याल पालती है उसकी बेटी भी इस तरह जिंदगी जी लेगी, लेकिन लोगों को दिखाने के लिए, सो कॉल्ड सामान्य जिंदगी जीने के लिए उसे एक सामान्य इनसान से ही शादी करनी चाहिए। यही होता भी है, लेकिन मां और बेटी की कहानी में एक टिवस्ट ये है कि इलेना छिप-छिप कर नहीं पूरी हिम्मत के साथ शादी के छह साल बाद अपने प्यार को चुनती हैं, लेकिन छह साल असामान्य कहे जाने वाले लोगों के लिए सामान्य नहीं होते। तब तक बर्फी झिलमिल का हो चुका होता है और जिस ख्वाहिश को मन में पाले हुए इलेना बड़ी होती हैं ('बचपन से ही मेरे लिए प्यार का मतलब था किसी के साथ हर पल जीना और साथ में ही मर जाना') वो ख्वाहिश झिलमिल और बर्फी की प्रेम कहानी में आकर पूरी होती है, बस जहां इलेना होना चाहती थी वहां झिलमिल होती है जिसने कभी कुछ नहीं सोचा था बस किया था, प्रेम। उसने होने के बाद किया था या करने के बाद हो गया था ये हम सब सामान्य कहे जाने वाले लोगों के अपने अपने सेंस ऑफ ह्यूमर पर निर्भर करता है। फिल्म पूरी तरह दर्शक को बांधे रहती है और अंत में शायद उन सारे सामान्य लोगों को शर्मिंदा कर जाती है जो हर वक्त प्रेम प्रेम का राग अलापते रहते हैं।
मंगलवार, 25 सितंबर 2012
प्रेम प्रेम सब करें प्रेम करे न कोय....बर्फी की खामोशी के सुर
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3 टिप्पणियां:
'प्रेम के बारे में सोचना नहीं चाहिए..उसे सिर्फ करना चाहिए।'
प्रेम किया भी नही जाता बस हो जाता है कब और कैसे नही जान सकते।
..
बेशक वास्तविक प्रेम मौन होता हैं.. लेकिन गूँगा नहीं होता "बर्फी" बोल नहीं सकता था लेकिन जितना जोर से वो बोला कोई और नहीं बोला , उसका प्रेम मौन नहीं था.. खैर आगे ये कहूँगा की फिल्म , उपन्यास , कविताएँ समूचा साहित्य आदमी की भावनायों की अति हैं, फिल्म में आदमी की हर भावना उसकी अति पर दिखाई जाती हैं मसलन प्यार , नफरत , हास्य वे हर चीज़ को उसकी अति पर ले जाते हैं.. बर्फी में भी यही फ़ॉर्मूला अपनाया गया हैं
हालांकि ये मौलिक फिल्म नहीं हैं लेकिन इसका दृश्यांकन मुझे अच्छा लगा
और आपका ये लेख भी ..!!
_Aharnishsagar
खूबसूरत और प्यारा। :-)
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