इससे पहले भी जब कभी मैंने आजादी के दिन के बारे में कुछ लिखा है तो उन लड्डुओं का जिक्र जरूर किया है जो मैंने पूरे 12 साल हर 15 अगस्त और 26 जनवरी पर खाएं हैं। बेशक मैं कितनी ही बड़ी-बड़ी बातें कर लूं मगर एक सामान्य शख्स की तरह कुछ इंसानी कमजोरियां मेरे साथ भी हैं। लड्डु उन्हीं कमजोरियों में से एक है।
इसलिए शायद पिछले इतने सालों में जब भी मैंने आजादी के सही मायने तलाशने और उनके बारे में संजीदगी से सोचने की कोशिश की तो लड्डु का स्वाद उस पर हावी हो गया। आप सोचेंगे मेरी जिंदगी के 12 साल बीते हुए तो 11 साल का वक्त निकल गया फिर.. 11 साल मैं क्या करती रही..दरअसल मेरी मां टीचर हैं तो मेरा स्कूल खत्म होने के बाद भी घर पर लड्डुओं का आना जारी रहा और इसलिए मुझ पर मेरी कमजोरी का हावी होना भी...
खैर
इस बार मैंने इस पर काबू किया है...बिल्कुल वैसे ही जैसे लड़कियां अपनी दूसरी तमाम कमजोरियों पर काबू करती रहती हैं न जाने कितनी बार....
लड्डु न खाने से पेट में जो स्पेस खाली छूटा है वहां एक सवाल घुड़मुड़-घुड़मुड़ कर रहा है। सवाल ये कि क्या ये दिन सच में इस तरह खुश होने का है कि स्कूलों में लड्डु बांटे जाएं। छतों पर पतंग उड़ाई जाए। फिल्म देखी जाए। बाहर घूमने जाया जाए। धानी और नांरगी रंग के कपड़े पहने जाएं। फेसबुक पर स्टेटस अपडेट किया जाए। रंगारंग कार्यक्रम किए जाएं...?
आज इतने सालों बाद आजादी पर सोचते हुए मैंने अपनी एक कमजोरी को तो पीछे छोड़ दिया है मगर दूसरी फितरत मेरे साथ है और वो है मेरा स्वार्थ। स्वार्थ ये कि यहां मैं पूरे देश या देशवासियों की नहीं सिर्फ अपने लिए आजादी के मायनों की बात करुंगी। जानती हूं कि 65 साल बाद इन बातों का रोना रोकर कुछ हासिल नहीं होगा, लेकिन मैं इतने सालों तक खाए गए लड्डुओं का पश्चाताप करना चाहती हूं।
तो कहानी कुछ इस तरह है कि किताबों और किस्सों से इतर जब मैंने इस बार आजादी को समझा तो देखा कि
इस डिप्लोमेटिक आजादी की वजह से ही आज मेरे पास मेरे गांव का नाम नहीं है। वो गांव जहां शहर की आपाधापी से दूर जाकर कुछ दिन मैं सुस्ता सकूं। कोई जमीन नहीं है जिसके खेतों में मैं गर्मियों की छुट्टी में जाकर लहलहा सकूं। पुरखों की विरासत नहीं है। वो गली कूचे नहीं है जहां मेरे दादा-परदादा रहे और पले-बढ़े। और जहां जाकर मैं उनके अस्तित्व को महसूस कर सकूं। उन पर किस्से कहानियां औऱ कविताएं लिख सकूं। विभाजन की वो टीस क्या होती है वो इस बार पहली बार मुझे महसूस हुई। शायद कहीं दबी तो पड़ी थी पर लड्डुओं ने उसे उबरने नहीं दिया।
कहां की हो तुम...ये सवाल न जाने कितने सालों से हर वक्त हर मोड़ पर पीछा करता रहता है। ... औऱ मैं कुछ ठीक-ठीक नहीं बता पाती। क्यों..क्योंकि हम मुलतानी हैं। मुलतान के रहने वाले मुलतानी.. इतना कह भर देने से ही मेरे दोस्त मुझे रिफ्यूजी कह कर चिढ़ाने लगते औऱ एक कुंठा मेरे अंदर दाखिल होती और फिर हवा के रास्ते बाहर निकल जाती। मुझे लगता रिफ्यूजी होना एक मजबूरी है कोई इतनी बुरी बात नहीं जिस पर संजीदा हुआ जाए।
लेकिन आज मैं बेहद संजीदा हूं क्योंकि इस रिफ्यूजी होने ने मुझसे मेरा इतिहास छीन लिया और इसलिए मैं अपने भूगोल को आज तक नहीं समझ पाई औऱ न ही समझा पाई....
अब आप ही बताइए कि मेरी मां का जन्म उत्तरप्रदेश के एक कस्बा नुमा शहर खुर्जा में हुआ उनका बचपन पंजाब के अबोहर में बीता। मेरे पिता जयपुर में पले-बढ़े। देहरादून में पढ़े-लिखे। हरिद्नार में बसे। और मेरा जन्म हुआ बुलंदशहर में और मैं बचपन से रही हूं गाजियाबाद में..............अगर आप मेरे इस भूगोल को समझ सकें हों तो मुझे भी एक शब्द में इस सवाल का जवाब दीजिएगा कि "मैं कहां की हूं..."सिवाए इस जवाब के जो मैंने अभी कुछ बरस पहले ही देना सीखा है.." हिंदुस्तान"
मगर फिलहाल मैं खुद ही एक कोशिश करती हूं अपने असल भूगोल को समझने की...
मुलतान, जो पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में स्थित है, चेनाब नदी के किनारे।
मुलतान, जिसे सूफी और संतों का शहर कहा जाता है।
मुलतान, जो बाबा फरीद के नाम से मशहूर पंजाबी के बेहद शुरुआती दौर के कवि फरीदुद्दीन गंजशकर का जन्मस्थान है।
मुलतान, जो सिर्फ एशिया ही नहीं दुनिया के कुछ एक सबसे पुराने शहरों में से एक है।
औऱ
मुलतान, वही शहर जो आजादी के नाम पर अपनी पहचान लुटा बैठा। और मुलतानी कहे जाने वाले इसके बाशिंदे भारत का रुख कर गुमनाम हो गए क्योंकि मुस्लिम बहुल होने के कारण मुलतान को पाकिस्तान का हिस्सा बना दिया गया....।
ये ख्याल बहुत पाक नहीं लगते जो आज मन में यूं कुलाचे मार रहे हैं। क्योंकि इतना जानती हूं मैं कि उस वक्त ब्रिटिश रुल से आजाद होना ही सबसे बड़ी परिभाषा थी आजादी की..शायद रहनुमाओं को ख्याल ही न आया हो किसी की पहचान और गांव घर के हमेशा के लिए दफन होने का।...मगर आज इन ख्यालों को रोकना नहीं चाहती मैं... बेशक नापाक ही सही लेकिन आज आजादी के इरादे मेरे मन में कुछ नेक नहीं लगते...आज मैं आजादी के इस दिन को बेदखल कर देना चाहती हूं अपनी जिंदगी से ...
12 टिप्पणियां:
यही है असली हिन्दुस्तान अब ये मुल्तानी वो झांगी,मोदी सांप्रदायिक ,मायनो सोनिया सेकुलर ,ये क्षेत्रवाद ही ,अब आज़ादी के मायने हैं ,लड्डू खाने के बहाने हैं ,देश की दौलत गिरवीं यारों ,देश में अब क्या रख्खा है ,ताला तोड़ों स्विस बैंक का वहीँ पे सब कुछ रख्खा है ....बुरा न मानो आज़ादी है ..... .बधाई उत्कृष्ट रचना के लिए .
कृपया यहाँ भी पधारें -
बृहस्पतिवार, 16 अगस्त 2012
उम्र भर का रोग नहीं हैं एलर्जीज़ .
Allergies
यही है असली हिन्दुस्तान अब ये मुल्तानी वो झांगी,मोदी सांप्रदायिक ,मायनो सोनिया सेकुलर ,ये क्षेत्रवाद ही ,अब आज़ादी के मायने हैं ,लड्डू खाने के बहाने हैं ,देश की दौलत गिरवीं यारों ,देश में अब क्या रख्खा है ,ताला तोड़ों स्विस बैंक का वहीँ पे सब कुछ रख्खा है ....बुरा न मानो आज़ादी है .....देश को रिफ्यूजी बना दिया है इस आज़ादी ने ... .बधाई उत्कृष्ट रचना के लिए .
कृपया यहाँ भी पधारें -
बृहस्पतिवार, 16 अगस्त 2012
उम्र भर का रोग नहीं हैं एलर्जीज़ .
Allergies
आज 16/08/2012 को आपकी यह पोस्ट (संगीता स्वरूप जी की प्रस्तुति मे ) http://nayi-purani-halchal.blogspot.com पर पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
बहुत बढ़िया हिमानी जी.....
खालिस देशभक्ति की महक और लड्डुओं की मिठास पायी आपके ब्लॉग में...
शुभकामनाएं..
अनु
यसवंत जी के माध्यम से आपके ब्लॉग तक पहुंची ...
बहुत ही मार्मिक लिखा आपने ....
मुल्तान का भारत से अलग होना सचमुच बहुत बड़ी क्षति है ...मेरे पिता भी लाहौर के पढ़े लिखे हैं ...दसवीं की परीक्षा दी ही थी की टुकड़े हो गए ...रिजल्ट भी उन्ही टुकड़ों में दब गया ....
जब वे बंटवारे की बाते बताते हैं तो दिल ढल जाता है ...
लड्डू हमने भी बहुत खाए हैं ....:))
बहुत अच्छा .. एक भीगापन तारी हो गया .. लगता हैं इस आजादी के साथ हम जितना पा सके ...उससे कही ज्यादा हमने खो दिया..!!
कही न कही से ..मैं भी शामिल हूँ इस दर्द में
sateek v sarthak lekhan .aabhar
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यशवंत जी आपके माध्यम के जरिए काफी मदद हो जाती है...एक दूसरे को पढ़ने में इसलिए शुक्रिया
और साथ ही संगीता जी का भी धन्यवाद
एक कडवे सच को उजागर कर दिया .... लड्डुओं की मिठास सच ही दब गयी है ...
खरगोश का संगीत राग रागेश्री पर आधारित है जो कि खमाज
थाट का सांध्यकालीन राग है, स्वरों में कोमल निशाद
और बाकी स्वर शुद्ध लगते हैं, पंचम इसमें वर्जित है, पर हमने इसमें अंत में पंचम का प्रयोग भी
किया है, जिससे इसमें राग बागेश्री भी झलकता है.
..
हमारी फिल्म का संगीत वेद नायेर ने
दिया है... वेद जी को अपने संगीत कि प्रेरणा जंगल में
चिड़ियों कि चहचाहट से मिलती है.
..
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आप एक इंसान हैं
और एक बेहतर इंसान हैं
इससे अधिक
आज कुछ मायने नहीं रखता
इसलिए चिंतित न हों
निश्चिंत रहें हिमानी बिटिया।
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