यार तू देखिओ इसका तीसरा पार्ट भी आएगा।
...अबे तुझे कैसे पता
यार मैं कह रहा हूं न..
अभी रामाधीर सिंह का बेटा जिंदा है..
और डेफिनेट भी तो है...
अब वो राज करेगा वासेपुर में
..अबे हां यार ...तीसरे पार्ट में और भी मजा आएगा
अब डेफिनेट बताएगा...
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गैंग्स ऑफ वासेपुर पार्ट-2 देखने के बाद लौटते हुए ऑटो में तीन 14-15 बरस के लड़कों की बातचीत कुछ इसी तरह की थी। अब इसके बाद और वो भी फिल्म रिलीज होने के इतने दिन बाद समीक्षा लिखने का कोई बहुत ज्यादा औचित्य नहीं लगता। मगर ये फिल्म का ही असर है कि कह के लेना जरूरी लगता है...तो सोचा कुछ कह दिया जाए....
सिनेमा के इतिहास में ये फिल्म कितना याद की जाएगी इस बारे में तो शायद वक्त ही बताएगा मगर बॉलीवुड में फिल्मों के सिक्वल की जब भी बात होगी तो गैंग्स ऑफ वासेपुर का जिक्र जरूर किया जाएगा। बॉलीवुड में, फिर हेरा-फेरी के बाद गैंग्स ऑफ वासेपुर-2 ही ऐसी फिल्म लगती है जो सच में सिक्वल के मायनों पर खरी उतरती है। सिक्वल यानी जो पहली कहानी को पूरा करे ...और गैंग्स इस परख को पूरा करती है
सरदार खान को किसने मारा?
बंगालन ने किसे फोन करके सरदार खान के बारे में बताया?
दानिश और फैजल में से कौन लेगा सरदार खान की मौत का बदला?
रामाधीर क्या सेकेंड पार्ट में भी एक शांत शातिर नेता बना रहेगा या उसका खून भी खौल जाएगा और वो भी कह के लेने की हिम्मत जुटा पाएगा ?
गोली-गाली और बदले की इस लड़ाई के बीच कैसे खिलेगी मौसीना और फैजल की प्योर देहाती फ्लेवर से लैस प्रेम कहानी?
नगमा खातून के रोल में ऋचा चड्डा बूढ़ी उम्र के साथ कैसे करेगी इंसाफ और फैजल के तौर पर नवाजुद्दीन सिदद्की मनोज वाजपेयी की तुलना में कितना बेहतरी से फिल्म को संभाल पाएंगे?
इन सारे सवालों के जवाब बेहद धुआंधाड़ और चुटीले अंदाज में गैंग्स के पार्ट- 2 ने दिए। इसके अलावा एक टाइमलाइन की तरह जिस तरह इस फिल्म में साल दर साल झारखंड और बिहार में लोहे और कोयले के काले धँधे की कलई खोली है उसे देखते हुए ही शायद असल में भी कोयले की धांधली पर कैग की नई रिपोर्ट सामने आ गई है।
इस तरह के काले धंधों की राजनीति को फिल्म के जरिए समझाने की सोचना और ऐसा करके दिखाना एक ब़डा रिस्क है। इस रिस्क को उठाकर अनुराग कश्यप ने कितना गेन कमाया है ये तो इस फिल्म की चर्चा से ही मालूम हो जाता है।
इस फिल्म में एक आम दर्शक के हिसाब से तमाम ऐसी बाते हैं जो उसे ये फिल्म न देखने की सलाह देती दिखती हैं, मगर फिल्म रिलीज के एक हफ्ते बाद भी इस फिल्म को देखने के लिए थियेटर में जुटी भीड़ इस बात का सबूत देती है कि उन सारे सलाह-मशवरों को पीछे छोड़कर पब्लिक ने ये देखने में दिलचस्पी दिखाई है कि आखिर तमाम आलोचनाओं के बावजूद इतनी गालियों और गोलियों को फिल्म में रखने की वजह क्या थी।
और जहां तक मुझे लगता है दर्शकों को वो वजह दिखाई भी दी और समझ भी आई।
बेशक ये फिल्म का सेकेंड पार्ट हो लेकिन इसके फसर्ट दर्शकों की भी कमी नहीं थी, ऐसे दर्शक जो जल्द से जल्द अब पहला पार्ट देखने की योजना बना रहे थे।
कहानी, अदाकारी और गाली-गोली को समझने के बाद इस फिल्म में एक और बेहतरीन चीज है। ऐसी चीज जो दर्शकों को गोली के अधाधुंध धमाकों के बाद भी सीट पर बैठे बैठे गर्दन मटकाने और शब्दों की समझ न होने के बाद भी गुनगुनाने का मौका देती है। वो चीज है इसका म्यूजिक ...
...सैंय्या काला रे...से लेकर फ्रस्टरेटियाओ नहीं मोडा तक स्नेहा खानवल्कर ने बॉलीवुड में गीतों का एक नया ट्रेंड शुरु किया है ...जहां हीरो-हीरोइन के पेड़ के आगे-पीछे घूमने या हाथ पैर हिलाकर अजीबो-गरीब डांस करने की जरूरत नहीं है।
ये ऐसे गीत हैं जो सच में जिंदगी से जुड़ते हैं... असल जिंदगी में शायद ऐसे गीत सदियों से पत्नी और प्रेमिकाओं की जुबां पर रहे होंगे जिन्हें गुनगुना भर देना काफी है....
और फिर इस बार इस क्राइम थ्रिलर में जो एक औऱ सबसे अच्छी बात नजर आती है पहले पार्ट के मुकाबले वो है इसमें इस्तेमाल किए गए ह्यूमर्स डॉयलॉग और हालात... जिनमें मर्डर के सीन में भी दर्शक हंसने पर मजबूर हो जाता है...
और आखिर में इस बात की चर्चा करना भी जरूरी है कि 180 रुपये खर्च करने के बाद दर्शक को मिलता क्या है..
1.
पहले पार्ट से उठे सवालों का जवाब
2.
झारखंड और बिहार में कोयला और लोहा माफिया की राजनीति का ब्योरा
3.
नायक की छवि से बिल्कुल भी मेल न खाने वाले नवाजुद्दीन सिद्दकी जैसे अभिनेता में एक उभरते नायक को देखना
4.
तीसरी बात में बाकी के सारे कलाकारों को शामिल कर भी यही कहा जा सकता है कि इस फिल्म के जरिए ये बात फिर से साबित हुई कि शाहरुख,सलमान और कैटरीना के अलावा और भी चीजें हैं जो फिल्म चला सकती हैं...और जिन्हें देखना दर्शक पसंद भी करते हैं...
5.
हटके म्यूजिक का मजा
6.
एक शिक्षा- सिर्फ सिनेमा देखने से ही नहीं (फिल्म में रामाधीर का एक डायलॉग भी इसी तरह है) दूसरी औरत का लालच पालने से भी लोग चूतिया बनते रहे हैं इस देश में.....
3 टिप्पणियां:
पार्ट -२!!!!! मुझे तो लगता है के निर्माता ने हमें ठग लिया ... फिल्म तो एक ही थी फिर टिकेट दो काहे भाई????
aapne acha likha hai. doob kar dekhti hain ap movie...
खरगोश का संगीत राग रागेश्री
पर आधारित है जो कि खमाज थाट का सांध्यकालीन राग है, स्वरों में कोमल निशाद और बाकी स्वर शुद्ध
लगते हैं, पंचम इसमें वर्जित है, पर हमने इसमें
अंत में पंचम का प्रयोग
भी किया है, जिससे इसमें राग बागेश्री भी झलकता है.
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हमारी फिल्म का संगीत वेद नायेर ने दिया है.
.. वेद जी को अपने संगीत कि प्रेरणा
जंगल में चिड़ियों कि चहचाहट से मिलती है.
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