पिता, एक टेंट की तरह होता है। तन कर खड़ा हुआ है। मगर जिसके गिरते ही जिंदगी की सारी सुरक्षा खत्म हो जाती है।
.... ये बातें बहुत पहले कहीं पढ़ी थी मैंने। आज फिर याद हो आईं। हालांकि ये अभी-अभी याद आया है कि ये सब मेरे साथ तब हो रहा है जब बच्चे फादर्स डे मना रहे हैं।
बेमन से घर से निकली थी। पता नहीं था क्यों जा रही हूं, लेकिन जा रही थी। फिल्म देखना एक ऐसा अवसर या कहें कि बहाना होता था जब हम (मैं और मेरे एक करीबी मित्र) मिल लेते थे वरना मिलने की कोई खास वजह नहीं थी।
इस बार सारा प्रोग्राम बिगड़ चुका था। सिंगल थियेटर में फिल्म देखना तय हुआ था,लेकिन मेरे देर से पहुंचने के कारण शो निकल चुका था। कुछ देर एक कॉफी हाउस की तलाश में घूमने के बाद जब गरमी का असर दिखने लगा तो तय हुआ कि कहीं दूसरे शो के लिए चला जाए। दौड़-धूप कर जहां पहुंचे, वहां शो बहुत देर से था। गुस्सा भी था, झुंझलाहट भी मगर कोई ऐसे शब्द नहीं थे हमारे पास कि ये गुस्सा निकाल पाते। हंसी और ठहाकों में सारी बेबसी कहीं बहती जा रही थी। बेबसी..हां बहुत बेबस और बेअदब से मूड में थे दोनों।
खैर इन सारी बातों को पीछे छोड़ एक नए मॉल में जाने का फैसला हुआ। यहां पहुंचकर थोड़ी तसल्ली मिली। सबसे पहला शो कौन सा है....देखने पर पता चला कि फरारी की सवारी। हमारे मित्र शंघाई देख चुके थे मैंने नहीं देखी थी, लेकिन फिर भी काफी थके होने की वजह से यही तय हुआ कि फरारी की सवारी ही देख लेते हैं।
फिल्म शुरू होने से पहले ही हॉल में बच्चों की भीड़ देखकर अंदाजा लग गया था कि हम यहां गलत टाइप की ऑडियंस हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे कोई एडल्ट फिल्म देखने 14 साल का बच्चा पहुंच जाए। लेकिन अब यहां तीन घंटे बैठना था।
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फिल्म शुरू होती है....एक बाप (शरमन जोशी) पूरी तरह अपने बेटे(ऋत्विक) के लिए मां की भूमिका में है। बच्चे के लिए नाश्ता बनाना, स्कूल के लिए तैयार करना और उसके मन की बातें करना। अक्सर ये काम मां किया करती है, मगर इस बच्चे की मां नहीं है। जो पिता है वहीं बहुत कुछ मां सा है। बच्चे की पढ़ाई से लेकर उसके शौक तक हर चीज का ख्याल रखता है। बच्चे का सिर्फ एक ही शौक हैं और एक ही सपना, क्रिकेट। पूरी फिल्म इस सपने को पूरा करने के इर्द-गिर्द घूमती है। क्रिकेट के बीच में फरारी कहां से आती है इसी सस्पेंस के जवाब लिए कुछ देर ये फिल्म बहुत ही स्लो स्पीड के साथ दर्शकों को बांधे रखती है। बहुत अच्छी स्क्रिप्ट और डायरेक्शन न होने पर भी इस फिल्म में बाप और बच्चे के रिश्ते को दिखाने वाली कई कहानियां हैं।
बेशक हमें ये कायो ((ऋत्विक) ) और उसके पापा रुस्तम(शरमन जोशी) की कहानी लगे। लेकिन इसमें रुस्तम और उसके पापा यानी कायो के दादा (बोमन ईरानी) भी शामिल हैं। ये उन दो बाप-बेटों की भी कहानी हैं जहां बाप अपने सपनों की टूटन को अपने बेटे की जिंदगी में शामिल नहीं होने देना चाहता और उसे क्रिकेटर की बजाए आईटीओ में क्लर्क बना देता है।
फिर इसमें वो दो बाप-बेटे भी शामिल हैं जहां बाप अपना पॉलिटीकल करियर जमाने के लिए बेटे को पूरी जिंदगी बंदूक दिखाकर अपना हुक्म चलाता रहता है। और आखिर में वो बेटा ही बाप पर बंदूक तानकर उसकी पॉलीटिक्स की असलियत सबके सामने लाता है।
तीन घंटे से कम की इस फिल्म में तो तीन तरह के बाप दिखाना काफी है लेकिन असल जिंदगी में इसके अलावा भी कई तरह के बाप होते हैं।
कुछ ऐसे बाप भी हैं जिनके बच्चों ने उनसे सालों से बात नहीं की।
कुछ बाप ऐसे भी हैं जिनका होना ही उनके बच्चों के लिए सबसे बड़ी मुश्किल है और कुछ ऐसे भी जिनके लिए बच्चे पालना सिर्फ एक सोशल फॉरमेलिटी है।
विधु विनोद चोपड़ा बेशक इस फिल्म के जरिए थ्री इडियट को मिली सफलता के रिकार्ड न तोड़ पाए, लेकिन बेटे के सपनों के लिए की जा रही बाप की जी-तोड़ कोशिशें हम जैसे उन बच्चों को उस भरे हॉल में जरूर तोड़ देती हैं जिन्होंने अपने बाप को मजबूर होते देखा है। बिल्कुल उस बाप की तरह जो बेटे के सपनों के लिए लोन लेना चाहता है, लेकिन उसे कोई लोन नहीं देता, क्योंकि उसकी तनख्वाह इतनी कम है कि उस पर लोन मिल ही नहीं सकता।
नियम कानूनों का पालन करने वाला एक शांत, सीधा-सादा इंसान नियम भी तोड़ता है और उस इंसान की गर्दन भी पकड़ता है जिसकी वजह से उसका बेटा लापता हो गया था। अचानक एक कैरेक्टर में ये शिफ्ट देखना हल्का सा हैरान करता है और ये हैरानी तब खुद ही फना हो जाती है जब याद आता है कि इस वक्त ये इंसान एक बाप है सिर्फ और सिर्फ एक बाप।
न चाहते हुए भी देखी गई ये फिल्म.. खत्म होते-होते मन को फिर से उस चाहत से लबरेज कर देती है जो चाहत बरसों से जमी पड़ी है.. एक ऐसे फ्रिज में जिसका दरवाजा ही नहीं खोला किसी ने। एक पिता को समझने और प्यार करने की चाहत।
3 टिप्पणियां:
super.... happy fathers day.....
बढ़िया समीक्षा सी कर दी है पिक्चर की ...
वाह ... बहुत बढि़या ..शुभकामनाएं
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