सोमवार, 11 जून 2012

जिदंगी में एक दुनिया रहती है



दीवार में एक खिड़की रहती है-विनोद कुमार शुक्ल।


काश.. जिंदगी का होना.. जिदंगी में जिंदगी का होना भी होता। अजीब सी है न ये लाइन। लेकिन विनोद कुमार शुक्ल का उपन्यास दीवार में खिड़की रहती है ....पढ़ने के बाद... आपको धीरे धीरे इस तरह की अजीब लाइनें भी समझ आने लगती हैं... और साथ में समझ आने लगता है.. जिंदगी का एक नया चेहरा।


सच में समझ नहीं आता कि कहां उलझी है जिंदगी... ऐसी कितनी ख्वाहिशें हैं.. जिन्हें पूरा करने के दौरान खुद से ही मिलने का वक्त नहीं मिल पा रहा। खुद को पीछे छोड़कर कैसे आगे बढ़ रहे हैं हम। क्या ये आगे बढ़ना सही में वो आगे बढ़ना है जिस तरह हम आगे बढ़ना चाहते थे।


जानती हूं कि ये सारी बातें किसी भी वक्त.. कोई भी लिखने वाला इंसान लिख सकता है। मैं कुछ नया नहीं लिख रही। सही मायनों में कहूं तो ..बहुत ही घिसी पिटी बकवास लिख रही हूं।


लेकिन हमारी बहुत ही तमीजदार जिंदगी में इस तरह की एक बकवास की जगह होना भी जरूरी है। ये बकवास कई बार वजह दे देती है.. जिंदगी में.. जिंदगी को महसूस करने वाले कुछ पलों से मिलने की। ऐसे पल... जब बिन बात के हंसी आ जाती है ...और बिन बात के रोना। जब बिना पहचान के कोई मदद कर देता है और जान बूझकर किसी का परेशान करना भी अच्छा लगता है।




बीच में ही इम्तिहान आ जाने की वजह से कई दिन लग गए इस उपन्यास को पूरा पढ़ने में। आज.. अभी.. इसका आखिरी पन्ना पढ़कर पूरा किया इस उपन्यास को।


यकीन मानिए.. बड़ी तेज फीलिंग हो रही है कि काश एक ऐसी खिड़की मेरे पास भी होती.. जिसे जब चाहे लांघकर मैं अपने मन की दुनिया में जा सकती।


विनोद कुमार शुक्ल को पहली बार पढ़ा मैंने। काफी जगह लगा कि क्यों पढ़ रही हूं इस उपन्यास को मैं। न इसमें कोई हीरो टाइप का चरित्र है न कोई संघर्ष न कोई विशेष परिस्थिति..छोटे छोटे से कुछ ब्यौरे हैं बेहद छोटी छोटी बातों के। मगर इसका सार तब समझ आता है जब आप उपन्यास का आखिरी पन्ना पढ़ते हैं...पता चलता है कि


 जिंदगी में इस तरह की भी एक दुनिया रहती है जो दीवार की खिड़की से बाहर निकलकर ही दिख सकती है....ये दिखना दरवाजे से नहीं हो सकता...दरवाजा उस दुनिया में दाखिल ही नहीं होने देता कभी...




फिर वही ख्वाहिश कि काश ये  खिड़की मेरे घर की दीवार में भी होती
पर घर ही नहीं है
किराये का है तो खिड़की कैसे हो सकती है....

कोई टिप्पणी नहीं:

कमजोरी

उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...