रविवार, 8 अप्रैल 2012

टाइटेनिक थ्री डी से जिंदगी के इनफाइनाइट डी तक



"वुमन हैज ए हर्ट ऑफ डीप ओशियन" टाइटेनिक के डूबने की पूरी कहानी बताने के बाद जब 84 साल की रोज ये डायलॉग बोलती हैं तो न जाने कितने सारे राज आंखों के आगे तैर जाते हैं।
वो राज जो किसी को बताए नहीं गए।वो राज जिन्हें बता सकने वाले शब्द ही नहीं मिले कभी।जो हुआ था वो क्यों हुआ था, कैसे हुआ था, इन सवालों में खुद ही इतने उलझ गए क‌ि गांठों को ही समेटकर रख लिया किसी खजाने की तरह। ऐसा भी कुछ नहीं था क‌ि दो शरीर आपस में मिल गए थे और समाज की सारी बेड़ियों को तोड़ दिया था, मां-बाप को धोखा दे दिया था। लेकिन दो मन, बिना चेहरा देखे क्यों और कैसे मिल गए थे ये एक राज था,मेरा राज। एक अजनबी इनसान से प्यार हो जाने वाला राज, जिसे कभी नहीं देखा था मैने, न उसने मुझे।ये एक राज था अब तक कि एक असाइनमेंट के सिलसिले में मिले सीनीयर साथी ने मुझे स्पर्श का महत्व बताया था, मेरे हाथ की रेखाओं को छूकर। वो मेरा भविष्य पढ़ते-पढ़ते ये भी बता रहा था क‌ि मैं इन बातों को भविष्य में समझूंगी क‌ि किसी का एक स्पर्श कितना कीमती होता है। हजार मुलाकातें और एक छुअन एक बराबर हैं। तब ये बातें मेरी डिक्शनरी में गंदी बातें होती थी। इन्हीं गंदी बातों को राज बनाकर मैंने किसी को नहीं बताया था और आज ये राज, राज लगता ही नहीं है। जैसे बेमानी से बोझ के तले जी रही थी।ये भी एक राज था क‌ि मैं तीसरी क्लास से अपनी ही क्लास में पढ़ने वाले एक लड़के को बहुत पंसद करती थी, शायद अब भी करती हूं। उससे शायद ही कभी एक मिनट से ज्यादा बात हो पाई हो। मेरे ल‌िए इतनी छोटी सी उम्र में किसी से प्यार करना एक राज था गंदी बात वाला राज। जिसे मैंने ऐसे संभालकर रखा, जैसे बता दूंगी तो वो प्यार जो मिला ही नहीं है उसके खो जाने का डर था मुझे।ये सारी बातें अचानक स एक डायलॉग के आगे आकर खड़ी हो गईं, "वुमन हैज ए हर्ट ऑफ डीप ओशियन" । फिल्म के थ्री डी चश्मे के भी आगे। नीले लाल रंगों के उस फ्रेम के आगे ज‌ो खासतौर पर दृश्यों का तीसरा आयाम दिखाने के लिए लगाए जाते हैं। लेकिन मुझे ज‌िंदगी के कई आयाम दिख रहे थे। बहुत दिनों से किसी को खोने की टीस को भुला रखा था मैंने, जैसे उसकी यादों का 24 घंटे साथ रहना तय हो सांसों की तरह।  सांसें जो हमेशा चलती हैं अहसास ही नहीं होता क‌ि चल रही हैं या नहीं आदत पड़ जाती हैं उनके साथ जीने की। ऐसी ही हैं वो सारी यादें जो कमी का अहसास कराती हैं , न पा सकने की टीस दिखाती हैं हर रोज महसूस होती हैं इतना महसूस होती हैं क‌ि महसूस हो रही हैं या नहीं कई दिनों से पता ही नहीं चलाझुर्रियों वाले चेहरे के पीछे 84 साल की उम्र में भी जैक के प्यार को याद करके निखरती हुई रोज की आंखों में आंसू देखती हूं तो जैसे सुई सी चुभ जाती है। जैसे वो यादें नाराज होकर पूछती हैं क‌ि क्यों याद नहीं किया इतने दिनों से?टाइटेनिक, ये वही फिल्म थी जिसे न देखा होने के ल‌िए दोस्त अक्सर चिढ़ाते थे। फिल्म प्रोडक्शन पढ़ने वाली और फिल्म बनाने के ख्याली पुलाव पकाने वाली लड़की ने टाइटेनिक नहीं देखी। पता नहीं क्यों बॉलीवुड की फिल्मों से इतना अंध लगाव था क‌ि हॉलीवुड फिल्में कभी देखने का मन ही नहीं किया। किसी ने दिखाई भी नहीं। इस बार 3डी टेक्निक पर एक स्टोरी लिखी तो खुद ही मन‌ किया क‌ि देखा जाए। इस बार भी वजह टाइटेनिक से ज्यादा 3 डी टेक्निक देखना था। लेकिन 3 डी को मैं कितना समझी पता नहीं लेकिन ज‌िंदगी, प्यार और यादों की तकनीक समझ में आ गई। सिंड्रेला वाले जो ख्वाब टूट रहे थे वो फिर से करवटें लेने लगे। ज‌िंदगी के इतने सारे सवालों के बीच मौत को इतना करीब से देखना और इस मौत के बीच भी प्यार के वादे को जिंदा रखना, जैसे प्यार,  प्यार नहीं एक जुनून सा होता है जिद सी हो जाती है जिंदगी-मौत के मायने पाने-खोने का डर, अच्छे-बुरे का फर्क सबकुछ मिट जाता है। जैसे सारे विवाद और बातें बेकार हैं। सच में अगर सबको किसी न किसी से प्यार हो जाए सच वाला प्यार रोज और जैक वाला प्यार तो किस्सा ही खत्म हो जाए हर समस्या का। बॉलीवुड औऱ शाहरूख को इतना नजदीकी और तहे दिल से देखने के बाद भी न जाने क्यूं पहली ही बार में ये फिल्म इतना असर कर गई। जैसे पिछले कई दिनों से मेरे अंदर चल रहे सवालों के जवाब की ये एक लाइव प्रेंजेंटेशन थी। फिल्म देखते वक्त कहीं भाषा की दीवार सामने नहीं आई क्योंकि भावनाएं इतनी प्योर और बोलती हुई थी कि इस फिल्म में डायलॉग न भी होते तो चल जाता। लेकिन कहानी और किरदारों के अलावा तकनीक का इस फिल्म में गहरा योगदान है इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। और इस बात से भी नहीं कि इस बार टाइटेनिक थ्री डी ने जिदंगी के बहुत से डी यानी डाइमेंशनस को डिफाइन कर दिया। औऱ लोगों का पता नहीं मेरे लिए यही टाइटेनिक थ्री डी की समीक्षा औऱ उसका सच है। 

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