कुछ दिन पहले अलमारी की सफाई करते हुए अपनी पुरानी डायरियां पढ़ी
बहुत पुरानी, जब मैं ११ साल की थी
मैंने एक डायरी बनाई थी जिसमे मैं अपने मन की सारी बातें लिखती थी
जैसे आज स्कूल में क्या हुआ
मम्मी की तबियत खराब होने पर
या मेरी किसी प्रतियोगिता के बारे में
और ऐसे बातें भी जो किसी किताब में पढ़कर
मुझे अच्छी लगती थी
या कोई अच्छा सा गेम
क्योंकि मैं अक्सर कागज और कलम से खेले जाने वाले खेल ही खेलती थी जैसे नेम, प्लेस, थिंग. या कोई लव गेम जैसे फ्लेमस... जिससे ये पता चल जाता था कि जिसके बारे में आपके मन में फीलिंग है उससे आपका रिश्ता क्या होगा, इन बातों को सोचती हूँ और डायरी में जब फिर से वही सब देखा सपनो का एक चंचल सा संसार तो लगा कि माँ के गर्भ से बाहर आने पर भी जब मैंने आंखे झोली होंगी तो मेरा कोई सपना ही टुटा होगा, जिसकी भरपाई ये तमाम सपने भी मिलकर नही कर पा रहे. और मैं रात दिन- शाम दोपहर, हर पल नाजायज से ख्वाबों का बोझ पलकों में लिए घूम रही हूँ. वो पुरानी कवितायेँ जो सवाल लेकर तब खड़ी थी वही सवाल आज वाली नई कवितायों में भी हैं. वही सवाल कि जिंदगी क्या
है, प्यार, दोस्ती, रिश्ते, अकेलापन, लक्ष्य, मंजिलें, रास्तें और वही सब. अब नफरत हो गई है इस वही सब से. जिंदगी इन्ही चीजों पर घूम फिरकर लौटती रहती है...
कुछ ऐसी बंदिशे हैं जिन्हें एक दिन के लिए ही सही लेकिन मैं तोड़ देना चाहती हूँ मरोड़ देना चाहती हूँ
जिंदगी के तमाम दिन गुजारते हुए
जिंदगी जीने के लिए एक दिन चाहती हूँ
बस एक दिन
लेकिन पता है !
परेशानी क्या है ?
पहली परेशानी तो यही है कि वो सारी डायरियां
ये सारी ब्लॉग पोस्ट
ये सब एक कसक का नमूना बनती जा रही हैं
जिसे मैं सहेजना भी चाहती हूँ
और
समेट भी लेना चाहती हूँ
और फिर उस एक दिन का जिक्र
जब जिंदगी
जिंदगी की तरह मिली
यूँ ही
हर हाल में
खुश रहने के
फलसफे की तरह नही
बहुत पुरानी, जब मैं ११ साल की थी
मैंने एक डायरी बनाई थी जिसमे मैं अपने मन की सारी बातें लिखती थी
जैसे आज स्कूल में क्या हुआ
मम्मी की तबियत खराब होने पर
या मेरी किसी प्रतियोगिता के बारे में
और ऐसे बातें भी जो किसी किताब में पढ़कर
मुझे अच्छी लगती थी
या कोई अच्छा सा गेम
क्योंकि मैं अक्सर कागज और कलम से खेले जाने वाले खेल ही खेलती थी जैसे नेम, प्लेस, थिंग. या कोई लव गेम जैसे फ्लेमस... जिससे ये पता चल जाता था कि जिसके बारे में आपके मन में फीलिंग है उससे आपका रिश्ता क्या होगा, इन बातों को सोचती हूँ और डायरी में जब फिर से वही सब देखा सपनो का एक चंचल सा संसार तो लगा कि माँ के गर्भ से बाहर आने पर भी जब मैंने आंखे झोली होंगी तो मेरा कोई सपना ही टुटा होगा, जिसकी भरपाई ये तमाम सपने भी मिलकर नही कर पा रहे. और मैं रात दिन- शाम दोपहर, हर पल नाजायज से ख्वाबों का बोझ पलकों में लिए घूम रही हूँ. वो पुरानी कवितायेँ जो सवाल लेकर तब खड़ी थी वही सवाल आज वाली नई कवितायों में भी हैं. वही सवाल कि जिंदगी क्या
है, प्यार, दोस्ती, रिश्ते, अकेलापन, लक्ष्य, मंजिलें, रास्तें और वही सब. अब नफरत हो गई है इस वही सब से. जिंदगी इन्ही चीजों पर घूम फिरकर लौटती रहती है...
कुछ ऐसी बंदिशे हैं जिन्हें एक दिन के लिए ही सही लेकिन मैं तोड़ देना चाहती हूँ मरोड़ देना चाहती हूँ
जिंदगी के तमाम दिन गुजारते हुए
जिंदगी जीने के लिए एक दिन चाहती हूँ
बस एक दिन
लेकिन पता है !
परेशानी क्या है ?
पहली परेशानी तो यही है कि वो सारी डायरियां
ये सारी ब्लॉग पोस्ट
ये सब एक कसक का नमूना बनती जा रही हैं
जिसे मैं सहेजना भी चाहती हूँ
और
समेट भी लेना चाहती हूँ
और फिर उस एक दिन का जिक्र
जब जिंदगी
जिंदगी की तरह मिली
यूँ ही
हर हाल में
खुश रहने के
फलसफे की तरह नही