|
गुलजार की बनवाई हुई ग़ालिब की तस्वीर |
|
ग़ालिब की हवेली में ८० साल से रह रहे फखरुद्दीन बाबा |
दोपहर की अंगड़ाई। दुकानों पर मसरुफ लोग। सभी गलियों सी तंग गली। तारीखी इमारतें, पुराने खंडहरात। कुछ दीवारों पर इश्तहार तो कुछ पर पान की पीक की छींटे। इसी सिलसिलें में शामिल एक दीवार पर, कुछ तस्वीर, एक नाम ‘मिर्जा असदुल्लाह खान गालिब’। बल्लीमारान की ये गली कासिम जान ऐसे लगती है मानो ‘पुरानी दिल्ली कितनी बदली’ विषय पर छिड़ी बहस में शामिल एक पेचीदा दलील हो। जो चीख-चीख कर नहीं, बेहद खामोशी से ये कह रही है की ये दिल्ली गालिब की वही दिल्ली है जिसका अंदाजे-बयां आज भी कुछ और है। गालिब ने बल्लीमारान की इस हवेली में 1860 से 1869 तक का वक्त बिताया। जो उनकी जिंदगी का आखिरी वक्त था। इस हवेली ने गालिब की शेरो-शायरी की महफिल भी देखी है और ये हवेली उनकी तन्हाई के आलम की भी गवाह है। फर्क सिर्फ इतना है की अब ये हैरिटेज बिल्डिंग बन गई है। कुछ लोग विदेशों से इसके दरो-दीवार पर सिर्फ गालिब की रूह को महसूस ·रने चले आते हैं। तो कुछ अक्सर आते-जाते भी इसे अनजान सा बना जाते हैं। लेकिन पिछले 80 सालों से यहां रह रहे फखरुद्दीन बाबा कहते हैं आप अभी क्यों आई हैं 27 दिसंबर को आना। 27 दिसंबर यानि मिर्जा गालिब का जन्मदिन। तब आप जान पाएंगी की यहां कुछ नहीं बदला। वही महफिलें हैं, वही नफासत। वही अदब और वही शायरी जिसे गालिब गुनगुनाते थे। दिल्ली के सौ साल से भी बहुत पुरानी है पुरानी दिल्ली की ये हवेली। दिलचस्प ये है की गालिब के इतने ·रीब रहने वाले बाबा को शायरी से कोई लगाव नहीं है। लेकिन गालिब से दिल की ऐसी लगन है की
जब वालिद मियां ने हवेली छोड़ साउथ दिल्ली में कोठी बनाने के लिए कहा तो नाराज हो गए। बताते हैं, शायरी में मेरी यूं भी कोई दिलचस्पी नहीं रही मगर उस शायर के किस्से दिल खुश कर देते हैं जिसने बर्फी और जलेबी दोनों को मिठाई बताकर हिंदू और मुस्लमान दोनों को भाई बना दिया था। ये भाईचारा आज भी यहां सांसें लेता है।
1 टिप्पणी:
अच्छी प्रस्तुति ..
एक टिप्पणी भेजें