सोमवार, 28 नवंबर 2011

मजबूर कवि

दिन उगे से नौकरी और शाम ढले तक चाकरी
के बाद
रात की खामोशी में चीखें मारते हैं कुछ शब्द
जो नहीं बन पाए कविता
एक कवि इतना मजबूर कभी था क्या

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कमजोरी

उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...