रविवार, 12 दिसंबर 2010

एक चैन चाहतों की


  चाहतों की एक चैन सी है
हर पल में पलती बढती बिगडती 
प्रेम कहानिओ के बीच
तुम मुझे चाहते हो
और मैं जिसे चाहूंगी
वो शायद 
चाहता होगा किसी और को
उफ़ ! 
ये दफ़न होती जाती
अधूरी दासताएँ
ये बढ़ता अँधेरा
और सिमटते कोहरे में
दुबकती छिपती
अकेली रातें
और
ये सुबह भी मांग लाइ है जैसे
रात से कुछ सन्नाटा उधार
भरी दुपहरी में जैसे
सूरज को भी आ गई है नींद
शाम से कुछ उम्मीदें लगाये बैठे थे कि
सूरज मियां कि आँख खुली
और शब्बा खैर कहके
वो भी चलते बने
फिर क्या
फिर वही रात मिली
चंचल, अल्हड, महोश, मदमस्त, दीवानी सी
तारों की  महफ़िल में भी वीरानी सी
ये चाहतों की  चैन
तेरे मेरे दरम्यान ही नही है बस
दूर ऊपर भी कहीं 
चल रहा है चाहतों का 
अधुरा सा एक सिलसिला
चाँद चाहता है चांदनी को
चांदनी आसमान को
और आसमान निहारता है धरती को एकटक

3 टिप्‍पणियां:

कडुवासच ने कहा…

... bahut sundar ... behatreen rachanaa !!!

उपेन्द्र नाथ ने कहा…

हिमानी जी

बहुत सुंदर प्रस्तुति. शायद चाहत का कोई अंत नहीं.....
.

मेरे ब्लॉग सृजन_ शिखर ( www.srijanshikhar.blogspot.com )पर " हम सबके नाम एक शहीद की कविता "

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

यह चाहत ऐसी ही होती है ...सुन्दर अभिव्यक्ति

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