मंगलवार, 6 जनवरी 2009

उम्मीद

उम्मीद का आँचल
फैलता ही जाता है
बिना किसी वजूद
के बावजूद
विरह में मिलन
की आस
कलह में शान्ति
का प्रयास
बार बार हारकर भी
जीतने का प्रयास
उम्मीद का आँचल
ओद्दे ही तो
बढता जा रहा है
हर रहगुज़ार
एक अनजानी
मंजिल की तरफ़
चाहता भी वो
ख़ुद ही को है
और खफा
रहता है ख़ुद ही से
अपनी ही उम्मीदों का
बोझ लादे है वो
कोई एक khwaeshein नही है उसकी
सपनो का पूरा संसार है
जिस पर निगाह saadhe है वो
बचपन की वो नटखट शरारते
और जवानी का वो लड़कपन
साथ होकर भी कब साथ छुट गया
उम्मीद की aandhi में
उमर का वो कच्चा घर
न जाने कब टूट गया
वो उम्मीद थी बहुत नाम कमाने की
जमाने से आगे निकल जाने की
उस उम्मीद को पाने में
इतना आगे निकल गया है
हर शख्स की
अब उम्मीद नही
पलों को फिर से पाने की

1 टिप्पणी:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

बहूत सुन्दरता से संजोया है उम्मीद को
उम्मीद का थामे रहना ही जीवन को पाने का नाम है
सुंदर लिखा

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