सोमवार, 8 सितंबर 2014

कब हटेगा कोहरा, कब छटेगी धुंध


मौन
असंख्य शब्द आ और जा चुके हैं
तुम्हारे और मेरे बीच
मगर फिर भी हम वह नहीं कह सके
जिसके बाद मौन भी एक भाषा बन जाता है


बंदिशें
न जाने बंदिशों की कैद में हू मैं
या मेरे ही मन ने कैद कर लिया है बंदिशों को
अपनी परवाह नहीं रही अब
चाहती हूं कि
ये बंदिशें आजाद हों


संभावना
कहीं कुछ रहे न रहे
कोरे कागज पर हमेशा
शेष रहेंगी
संभावनाएं।


संवेदना
इच्छाओं के बाजार में
सरेआम
बेहद गिरे हुए दामों पर
बेची जा चुकी हैं संवेदनाएं
दिखाने और जताने को हैं सिर्फ सिसकियां
आह...
ओह...
ओहो...
आदि-आदि।


2 टिप्‍पणियां:

विभूति" ने कहा…

बेहतरीन अभिवयक्ति.....

दिगम्बर नासवा ने कहा…

संभावनाओं का बना रहना जरूरी है ...
गहरा एहसास ही सभी छोटी छोटी पंक्तियों में ...

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