[ फेमिनिज्म या नारीवाद मेरे लिए बेहद असहज कर देने वाले शब्द हैं। मेरा इन शब्दों से कोई वास्ता नहीं है। मुझे ये मानने में भी कोई गुरेज नहीं है कि औरत और आदमी के बीच फर्क है। औरत और आदमी एक बराबर नहीं है। मगर बावजूद इसके औरतें आदमियों की इस दुुनिया में अपनी जगह बना रही हैं बराबरी के साथ ये अच्छी और गौर करने वाली बात है। इसी मुद्दे पर एक बार किसी ने पूछा था कि अपने समय की औरत को कैसे चित्रित करोगी तो इस तरह कुछ लिखा था-----]
मेरे पास एक कहानी है। इस कहानी में दो किरदार हैं। पहला किरदार है एक लड़की और दूसरा किरदार निभा रहे हैं कुछ दूसरे लोग।
कहानी कुछ यूं है-
घर-परिवार की उम्मीदों पर पानी फेरते हुए वह लड़की जन्म ले चुकी है। लड़की होने की पहली सजा उसे ये मिली है कि उसके पैदा होने की खुशी में खुश होने वाला सिवाय उसकी मां के कोई नहीं है। मां खुश है क्योंकि वह मां बन गई है। वह अपनी बेटी को प्यार करती है। उसे हर वो खुशी देने की कोशिश करती है, जो उसे नहीं मिली। ‘’जमाना बदल रहा है। लड़का और लड़की में क्या फर्क करना।‘’ मां ये बात अच्छे से समझती है। मां कभी ये नहीं कहती कि काश मेरा एक बेटा होता। पिता को हमेशा ये अफसोस रहता है कि वह एक बेटे के बाप नहीं बन सके। इन्हीं विरोधाभासों में लड़की बड़ी हो रही है। मां की छाया और बाप की बंदिशों ने उसे लड़की की तरह रहना तो सिखा दिया है मगर वह जीना अपनी तरह चाहती है।
उसे कुछ बनना है।
वह खूब पढ़ना चाहती है।
अपने पैरों पर खड़े होना चाहती है।
नाम कमाना चाहती है।
पैसा कमाना चाहती है।
दुनिया की सैर करना चाहती है।
वह किसी को बेइंतहा मोहबब्त करना चाहती है।
वह जीना चाहती है अपनी तरह...
उसने शुरुआत कर दी।
वह पढ़ने गई।
कॉलेज से घर के रास्ते में कुछ अवारा लड़के उसके पीछे लग गए। कॉलेज छुड़वा दिया गया।
वह नौकरी करने लगी।
बॉस ने उसे गलत नजरों से देखना शुरू कर दिया। नौकरी छोड़ दी गई।
उसे एक लड़के से प्यार हो गया।
लड़के ने उसके प्यार का फायदा उठाकर उसके साथ जबरदस्ती की। प्यार पर पछता लिया गया।
उसकी शादी कर दी गई।
उसके पति ने बिना उसके मन और मर्जी को अहमियत दिए उसके शरीर पर अपना हक जमा लिया। उसे आदत हो गई।
जिंदगी उसकी चाहतों से कहीं दूर निकल चुकी थी। मगर कुछ था उसके पास जो उसे गाहे-बगाहे फिर-फिर उन चाहतों के किनारे पर पहुंचा दिया करता था। वह दुनिया और समाज के तौर-तरीकों पर चलकर देख चुकी थी। उसने अपने तौर तरीके बनाने शुरू किए।
ये एक नई लड़की का जन्म था।
उस लड़की ने पढ़ाई शुरू की।
रास्ते में पीछा करने वालों को गाली बकी और चप्पल उतार कर भी मारी। और एक दिन उन्हीं लड़कों ने उसके मुंह पर तेजाब फेंक दिया।
वह नौकरी करने लगी।
बॉस ने उसे गलत नजरों से देखा तो उसने साफ-साफ कह दिया कि वह अपनी नजरें सही करे। उसे नौकरी से हाथ धोना पड़ा।
वह पूरे मन से एक लड़के से प्यार करने लगी।
लड़का उसके शरीर से प्यार करना चाहता था। उसने विरोध किया। उसका बलात्कार कर लिया गया।
उसकी शादी कर दी गई।
उसके पति ने जब हर दिन बिना उसके मन और मर्जी को अहमियत दिए उसके शरीर पर अपना हक जमाना शुरू कर दिया तो उसने एक दिन अपने पति से कहा कि उसका मूड नहीं है। पति ने उसे बेवफा समझ लिया।
अब वही लड़की एक बार फिर नया जन्म ले रही है।
मर्दों की बुरी नजर ने उसे बेशक मजबूर कर दिया है कि वे उन्हें नजरअंदाज करे।
तेजाब से झुलसे चेहरे की आग में वह बेशक आज भी जल रही है।
बेशक बलात्कार ने उसके शरीर ही नहीं आत्मा को भी झकझोर दिया है।
और यह बात भी साफ है कि परिवार और पति के बेवजह के तानों ने उसके दिल को चकनाचूर कर दिया है।
मगर वह हारेगी नहीं। टूटेगी नही। छिपेगी नहीं, न ही छिपने देगी। वह सामने आएगी और सामने लाएगी उन्हें जिन्होंने उसके वजूद पर बार-बार प्रहार किया है।
मेरे ख्याल में यही है मेरे समय की औरत
हमारे समय की औरत
बनती हुई औरत
बढ़ती हुई औरत