मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

जाने वो कैसे लोग थे, जिनके प्यार को प्यार मिला...

मां को एक बार कहते सुना था, ‘’जिंदगी जीने के दो ही तरीके होते हैं, या तो किसी के हो जाओ या किसी को अपना बना लो।‘’ 
 
फिर जब कविताएं पढ़ने का शौक जोश-खरोश से पूरा करने लगी तो मशहूर कवि पाश की एक कविता पढ़ी,
‘’बीच का रास्ता नहीं होता‘’

मां और पाश दोनों की ही बात से साफ है कि हम किसी एक ही तरफ होते हैं या तो ‘’हां ‘’ या तो ‘’ना‘’। या तो डूबना या तो तरना। मगर अफसोस मेरे अनुभव में इन दोनों अजीजों की यह सीख जिंदगी से बहुत मेल नहीं खा पाती। अक्सर ऐसा होता है कि न तो हम किसी को अपना बना पाते हैं पूरी तरह, न किसी के हो पाते हैं पूरी तरह। अक्सर ऐसा होता है कि जिंदगी बीच का ही कोई रास्ता अख्तियार कर लेती है और हम ना-ना करते हुए भी उसी बीच के रास्ते पर अपनी खुशियों की मंजिल बना लेते हैं। अक्सर यह फैसला करना काफी मुश्किल होता है कि हमें किसी एक तरफ जाना है या फिर बीच का ही कोई रास्ता निकालना है।





कई सालों पहले एक शाइर की जिंदगी में भी ऐसा ही मोड़ आया जब उसे किसी एक को चुनना था, या तो वो मतलब की दुनिया के हिसाब से खुद को ढाल ले और मशहूर हो जाए या फिर ऐसी दुनिया को छोड़कर अपनी अलग एक गुमनाम दुनिया बसा ले। अबरार अल्वी चाहते थे कि वह शाइर दुनिया के हिसाब से ढल जाए और गुमनामी की बजाय दुनिया के इस बदलाव को स्वीकार करके मशहूर हो जाए। वो दुनिया जिसने उसकी नज्मों को कूड़ेदान में बिना पढ़े फेंक दिया। वो दुनिया जिसने उसकी बेकारी बेरोजगारी और मुफलिसी को देखा और उसे देखकर पहचानने तक से इनकार कर दिया। और वही दुनिया जिसने तब एकदम से अपना तौर-तरीका ही बदल दिया, जब देखा कि उसी बेकार, बेरोजगार और मुफलिसी से घिरे शाइर की नज्मों को लोग सीने से लगाए फिरते हैं। उसी दुनिया ने उस गुमनाम शाइर को अपना अजीज बताना शुरू कर दिया। उसके नाम के कसीदे पढ़ने शुरू कर दिए।

अपनी सारी जिंदगी जो शाइर अपनी एक नज्म छपवाने के लिए अखबार और मैग्जीनों के चक्कर काटता रहा हो उसके लिए अपने नाम की किताबों के छपते देखने से बड़ा सुख क्या हो सकता था। लेकिन उसे यह सुख उस दुनिया के हाथों कबूल नहीं था, जिसने बुरे वक्त में उसे लात मारी थी। फैसला करना मुश्किल था,लेकिन जो फैसला लिया गया उसने मेरा ध्यान आज फिर मां और पाश की सीख की तरफ खींच दिया... 
-"जिंदगी जीने के दो ही तरीके होते हैं, या तो किसी के हो जाओ
या किसी को अपना बना लो।"
 


-"बीच का रास्ता नहीं होता"

शाइर ने बीच का रास्ता नहीं चुना,  उसने परायी और मतलबी दुनिया को तो अपना बना लिया, लेकिन उसका होना किसी भी सूरत में कबूल नहीं किया। उसने कबूल की गुमनामी की अपनी अलग दुनिया बसाना।
.....और इस तरह हिंदी सिनेमा की एक फिल्म ने इतिहास में हमेशा के लिए अपना नाम दर्ज करवा लिया।

प्यासा

निर्देशक-गुरुदत्त
निर्माता-गुरुदत्त
लेखक-अबरार अल्वी
अभिनय-गुरुदत्त, माला सिन्हा, वहीदा रहमान
...

फिल्में देखना या किताबें पढ़ना मेरे लिए एक नई दुनिया का सफर करने की तरह है। क्योंकि मैं अक्सर अपने घुमक्कड़ी के शौक को पूरा नहीं कर पाती इसलिए समय मिलते ही फिल्में देखती हूं या कोई नई किताब पढ़ना शुरू करती हूं। फिलहाल बात सिर्फ फिल्म की। यह शायद मेरी गलती रही कि अब तक मैंने सिर्फ अपने समय की ही फिल्में देखने पर गौर किया। पिछले कुछ वक्त से कुछ अच्छे लोगों की संगत और सोहबत का असर हुआ कि कुछ पुरानी फिल्में देखने लगी। पाकीजा, मुगल-ए-आजम, तीसरी कसम हाल के ही कुछ दिनों में मैंने देखी हैं। पाकीजा में राजकुमार-मीनाकुमारी की अदायगी और डायलॉग लुभाते हैं तो मुगल-ए-आजम की लंबाई के साथ उसके दर्शकों को बांधे रखने की अदा और तीसरी कसम में भोले-भाले प्यार की अधूरी कहानी। लेकिन इन सब फिल्मों में प्यासा को देखने के बाद लगा कि शायद फिल्में देखकर तृप्त होने की मेरी कोशिश प्यासा देखे बिना प्यासी ही रह जाती। 
इस खूबसूरत फिल्म के लिए गुरुदत्त साहब का शुक्रिया..

एक कबूलनामा
मुझे जानने वाले सभी लोग जानते हैं कि मैं शाहरुख खान को
लेकर थोड़ी दीवानी हूं। इसकी कोई खास वजह नहीं है...यूं भी किसी को पसंद या प्यार करने 
की कोई वजह होती नहीं है...लेकिन प्यासा देखने के बाद जो पहली प्रतिक्रिया मेरे लफ्जों में आई वो यही थी कि .... यार ... गुरुदत्त को मैंने आज तक कभी देखा क्यों नहीं था... ;)

1 टिप्पणी:

unidentified imran ने कहा…

ha ha ha ha (ismail lahari style main)....

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