''बलात्कार, पुरुष कामुकता की निरंतरता का एक चरम अंत है। पुरुषों में साथी तलाशने की
चाहत महिलाओं से ज्यादा प्रबल और अविवेकी होती है। पुरुष इसके लिए कई तरह से
अपनी इच्छा को महिलाओं के सामने रखते हैं। जब उनकी ये कामनाएं पूरी नहीं होती तो
उनकी इच्छा पूर्ति का एकमात्र साधन बलात्कार बचता है''
-स्टीवन पिंकर (नवभारत टाइम्स में प्रकाशित एक लेख से ली गई टिप्पणी)
पिछले कई दिनों से बार-बार ये सवाल दिमाग में
कौंध रहा था कि कोई आदमी बलात्कार क्यों करता है? अगर इसका जवाब
सिर्फ इतना है कि सेक्स इच्छा की पूर्ति के लिए बलात्कार किया जाता है तो इसके
सामने फिर कुछ सवाल खड़े हो जाते हैं।
पहला सवाल ये कि यह इच्छा किसी खास तबके या
व्यक्ति में तो नहीं होती। दुनिया के हर आदमी में यह इच्छा कभी न कभी पैदा होती है, हर कोई बलात्कार
करने लग जाए तो?
दूसरा यह कि क्या सिर्फ एक इच्छा को पूरा करने के लिए कोई इस हद तक गिर सकता
है?
हार्वर्ड विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान के प्रोफेसर स्टीवन पिंकर की हाल
ही में सामने आई टिप्पणी जिस तरह से मेरे इन सवालों का जवाब देती है वो संतोषजनक
तो नहीं है, लेकिन एक वजह को सामने जरूर रखती है। फिर भी मुझे नहीं लगता कि दरिंदगी को
किसी का मनोवैज्ञानिक विकार समझकर किसी भी तरह नजरअंदाज किया जा सकता है। जहां तक
मेरी समझ की बात है तो
बिना ज्यादा पड़ताल किए और सोचे-समझे, मेरे लिए बलात्कार
का जो पहला मतलब सामने आता है, वह है किसी के साथ अनैच्छिक या जबरदस्ती शारीरिक संबंध बनाए जाने की घटना।
लेकिन कुछ लोगों से बातचीत के दौरान और कुछ चीजें पढ़ते हुए जो परतें खुल रही हैं, उनसे यह घटना
सिर्फ इतनी सी है नहीं।
कई दफा मुझे लगता था
कि हमारे देश में बलात्कार के इतने मामले सामने आने की एक वजह ये भी हो सकती है
कि यहां सेक्स नामक शब्द को जुबां पर लाने को भी बहुत बुरा माना जाता है। इसके
बारे में सोचना और करना इतना गुप्त होता है कि किसका, कब, कहां और कितनी बार
बलात्कार हो चुका है, इसके सही आंकड़ें शायद यहां कभी जुटाए ही न जा सकें। शरीर से जुड़ी इच्छा, भावना और जरूरत के
इसी दमन की वजह हो सकता है बलात्कार। लेकिन एक दिन पहले बीबीसी पर प्रकाशित हुई एक
रिपोर्ट को पढ़कर ये भ्रम भी टूट गया। यह रिपोर्ट ब्रिटेन में बलात्कार के बढ़ते
मामलों के बारे में है। रिपोर्ट के अनुसार इंग्लैंड और वेल्स में हर साल औसतन चार
लाख 73 हज़ार सेक्स अपराध होते हैं। इनमें पुरूषों के साथ होनेवाले अपराध भी शामिल
हैं, मगर बहुतायत महिलाओं के साथ हुए अपराध है। इनमें हर साल बलात्कार की संख्या 60 हज़ार से 95 हज़ार तक होती
है। यानी आँकड़ों को मानें, तो इंग्लैंड-वेल्स में भारत से दोगुना से भी ज़्यादा बलात्कार होते हैं। इसका
मतलब समाज में खुलापन और शारीरिक इच्छाओं की खुलेआम पूर्ति भी इस समस्या का हल
नहीं है। बलात्कार की घटनाओं को देखने-सुनने की इस कड़ी में मेरे बढ़ते कंफ्यूजन
की एक वजह तमाम बुद्धिजीवियों और जाने-माने लोगों के बेतुके बयान भी हैं।
छत्तीसगढ़ से भारतीय जनता पार्टी के सांसद रमेश बैस ने भी कुछ ऐसा ही बयान दिया।
उन्होंने कहा कि बड़ी लड़कियों या औरतों के साथ बलात्कार समझ में आता है, लेकिन अगर कोई इस
तरह की हरकत नाबालिग के साथ करे तो उसे फांसी पर चढ़ा देना चाहिए। इस बयान को
सुनने के बाद बयानबाजी की जो राजनीति शुरू हुई वो तो अपने नियत कार्यक्रम के तहत
जारी है ही। लेकिन मुद्दा यहां फिर सवालों पर आकर खड़ा हो जाता है कि औरतों के साथ
बलात्कार अगर इतनी ही सामान्य घटना है तो फिर इस पर इतना हो हल्ला क्यों? फिर सवाल ये भी है
कि नाबालिग से बलात्कार के लिए आदमी की कौन सी प्रबल इच्छा जिम्मेदार है?
बलात्कार की घटनाओं के बाद लोगों ने लड़कियों के कपड़ों को लेकर भी तरह-तरह की
प्रतिक्रियाएं जाहिर की। ''महिलाएं छोटे और भड़काऊ कपड़े न पहनें''
गोया पुराने जमाने में तो औरतें सिर से पैर तक
ढकी होती थी। किसी ने तो यहां तक कह दिया कि ''लड़कियों के पास
मोबाइल नहीं होना चाहिए'',
गोया कि मोबाइल ही किसी आदमी को बलात्कार के
सिग्नल प्रेषित करता है। ''उन्हें हमेशा किसी रिश्तेदार के साथ ही बाहर निकलना चाहिए'' गोया आज तक कभी
रिश्तेदारी में किसी ने किसी का बलात्कार किया ही न हो। गोया इस तरह की
प्रतिक्रिया जाहिर करने वाले लोगों ने उन खबरों की तरफ कोई ध्यान ही न दिया हो, जब एक बाप अपनी
बेटी की इज्जत लूटकर फरार पाया गया। घटनाएं चाहें कितनी ही सामने क्यों न आए। बहस
का मुद्दा हमेशा आदमी की इच्छा और औरत की चरित्रहीनता पर खत्म होता है।
क्या शरीर से जुड़ी कोई इच्छा, जरूरत या चाहत औरत
के भीतर नहीं होती?
क्या कभी उसकी इच्छा और कामना अपने चरम पर नहीं
पहुंचती?
क्या कभी औरत को पुरुष के ज्यादा अच्छे और
स्मार्ट दिखने या हंस-बोलकर बात करने से गलत सिग्नल नहीं मिलते?
अगर ये सब औरत के साथ भी होता है। और अगर कुछ
लोगों का सामना इस सच्चाई से भी हुआ है कि आदमियों का भी बलात्कार किया जाता है तो
अंत में शायद बात प्रोफेसर स्टीवन पिंकर के उस तर्क पर ही आकर खत्म होती है, जिसमें उन्होंने
आदमियों में कमुकता के स्तर को महिलाओं के मुकाबले ज्यादा बताया है।
लेकिन अगर मनोवैज्ञानिक स्तर पर इच्छाओं का दमभर कर किसी अपराध और
दरिंदगी को जायज ठहराया जा सकता तो अदालत, सजा और न्याय नाम के शब्द पैदा ही न हुए होते।
यह मुद्दा अपराध,सजा और न्याय का तो है ही लेकिन भविष्य में इससे निपटने और इससे बचने के लिए ''आदमी, औरत और सेक्स'' की गुत्थी को भी सुलझाने की जरूरत होगी।
2 टिप्पणियां:
अति तो हर चीज़ की बुरी ही होती है। ज्यादा दिखाया तो भी बुरा, ज्यादा छुपाया वो भी बुरा।
और रही बात बलात्कार को रोकने की तो वो तब तक नहीं होने वाला जब तक "मर्द" अपनी "मर्दानगी" पर लगाम नहीं लगाते।
मेरी नज़र में बलात्कार के लिए केवल आदमी ही दोषी है।
बहुत सी पहलुओं पर विचार करना बाकी रह गया इस लेख में । मेरे ख्याल से बलात्कार क्यूं से ज्यादा बलात्कार है क्या ये समझना और समाझाना ज्यादा प्रासंगिक लगता है । आशा करता हूं आप मेरे जिज्ञासा को शांत करने के लिए जल्द ही इसपर एक पूर्ण लेख प्रस्तुत करेगीं ।
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