शनिवार, 25 सितंबर 2010

ताकि छोटा न हो शब्दों का आंचल

शब्दों से हमारा रिश्ता बहुत ख़ास होता है . लेकिन इस रिश्ते का महत्व तब तक एक रहस्य बना रहता है जब तक की कोई ऐसी परिस्थिति न आन पड़े कि  हमारे पास भावनाए हो और शब्द न मिले. वो एक अनमना सा पल जब अचानक शब्द गले तक पहुँच कर फिसल जाये जुबान तक आ ही न पाए. कितनी तकलीफ से भर जाता है मन ,  मन की बात कहने को जुबान व्याकुल सी हो जाती है लेकिन दिमाग है कि एक भूलभुलैया में खो जाता है . शब्दों की भुलभुलिया . जहाँ अपनी भावनाओ को सही शब्द दे पाना एक मुश्किल से भरा फैसला होता है.


ये बातें मैं किसी प्रेम प्रसंग या किसे कहानी के वश में होकर नही लिख रही हूँ, बल्कि पिछले कुछ दिनों से एक अखबार के दफ्तर में काम करते हुए, हुआ एक अनुभव है , जहाँ शब्दों के लिए शब्दों के ही बीच में हर रोज एक  जंग सी होती है. सभी के सुझाये गए शब्दों की अपनी एक वजह है. उनकी बोली, उनका परिवेश,उनकी पढाई .....और फिर हर शब्द के साथ काम करने वाली उनकी निजी सोच. मगर उस एक वक़्त जरुरत होती है हर तरह से फिट एक अदद शब्द की. शब्द मिलने के बाद उसकी लिखावट पर चर्चा. कहीं छोटा उ कही बड़ी ई. हालाँकि हर अखबार की अपनी एक स्टाइल शीट होती है लेकिन फिर भी हिंदी के अख़बारों में भाषा गत शुद्धता को लेकर बहुत सारा विरोधाभास है ....पढाई के दिनों में हमें अच्छी अंग्रेजी के लिए द हिन्दू पढने को कहा जाता था लेकिन वही हिंदी को लेकर हम अपनी अशुधता को दूर कर सके उसके लिए किसी एक भी अखबार का नाम ध्यान नही आता . ख़बरों की अपनी अलग पहचान के साथ अखबार या चैनल की पहचान उसकी भाषागत शैली के साथ भी जुडी है.मीडिया में हर बढ़ते दिन के साथ नए नए प्रयोग हो रहे है अलग तरह के कोलुम्न्स ले आउट लेकिन भाषा को लेकर सिर्फ एक निजी सोच और समझ  है वास्तव में सही क्या है इसका फैसला एक बड़ी बहस का बाद भी न निकले शायद. कुछ आगे बढ़कर कहीं कहीं तो हिंदी लिखने के साथ भी अजीब गरीब आसान नुस्खे अपनाये जा रहे है. एक तर्क ये होता है की वही लिखना है जो पाठक  को समझ में आये. लेकिन समझाने का ये कौन सा तरीका है की शब्द की बनावट ही अपने हिसाब से तय कर ली जाये. और फिर आम भाषा बोलचाल की भाषा और अखबार और चैनल की भाषा में कुछ तो फर्क होता है न . मुझे लगता है कि यंग इंडिया का मीडिया बनने से पहले शायद इंडिया का मीडिया बनना ज्यादा जरुरी है क्योंकि यंग इंडिया भी इंडिया को खोना नही चाहता वो अपने जुगाड़ करना अच्छे से जानता है उसके लिए इंडिया की भाषा, संस्कृति को idiotik  बनाना सही नही होगा.
शब्द भी बाकी चींजों कि तरह हमारी अनमोल धरोहर है उस एहसास से ही मन मायूस हो जाता है कि कहीं कोई शब्द खो गया है
प्रोयोगों के इस दौर में झांक के देखेंगे तो एक गहरी खाई है जिसमे बहुत सारे शब्द गिरा दिए गए है उन्हें वापिस लाने की कोशिश करनी चाहिए .............ये कोशिश कामयाब होना भी निहायत जरुरी है ताकि शब्दों के आंचल में हमेशा हमारी भावनाओ की बयाँ करने के लिए जगह रहे

5 टिप्‍पणियां:

संजय कुमार चौरसिया ने कहा…

bahut sahi baat hai

http://sanjaykuamr.blogspot.com/

अनिल कान्त ने कहा…

असल में शुद्ध और अच्छे शब्दों की निरंतर कमी होती जा रही हैं, समाचार पत्रों और मीडिया में....केवल यह सोचकर कमी करना कि आम इंसान की जितनी समझ हो वैसा लिखा जाये....अरे आप ये क्यों नहीं सोचते कि उनकी समझ में वृद्धि की जाए....शब्दों में कमी की प्रगतिशीलता एक दिन आम इंसान की ज़बान खाली न कर दे ....

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

शब्‍दों की कमी हमें मानव से मशीन बना देगी। अच्‍छी पोस्‍ट है।

Dr. Kumarendra Singh Sengar ने कहा…

अपनी इस पोस्ट का विश्लेषण यहाँ देखें
जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड

उपेन्द्र नाथ ने कहा…

bilkul sahi kaha aapne..........

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