त्रासदी ह मात्र इतनी
सोचता और समझता हूँ मैं
अभिव्यक्त करता भावः निज
सुख दुःख और यथास्थिति के
पहचानता हु हो रहा भेद
आदमी का आदमी के साथ
प्रतिवाद काटना चाहता हूँ
अन्याय और अत्याचार का
किंतु व्यवस्था देखना चाहती मुझे
मूक और निश्चेष्ट
नही हो सका मैं पत्थर
बावजूद चोतार्फा दबावों के
तथाकथित इस विकास युग में
shailendre chauhan ki ये panktiya mujhe हमेशा मुझे मथति रहती है
आज अपनी अभिव्यक्ति का आरम्भ इन्ही पंक्तियों से कर रही हु क्योकि ये पंक्तिया अभिव्यक्ति को आज़ादी देने का संदेश प्रदान करती है
आज बेशक हमें आजाद हुए ६० से वर्ष भी अधिक हो गए है लेकिन बंदिशों में हम आज भी बंधे है दबाव है कुछ अद्रश्य ताकतों का जिनकी वजह से चाह कर भी हम कुछ कह नही पातें देखकर भी अंजन बने रहतें है इन्ही दबावों को मैंने अपने भीतर और लोगो के अन्दर कई बार महसूस किया और इसलिए हमेशा मुझे ऐसे मध्यम की तलाश रहती जिससे अनुभूति को अभिव्यक्ति मिले और अभिव्यक्ति को आवाज़ और पत्रकारिता ऐसा ही एक मध्यम है पत्रकारिता की dunia में भी कुछ ऐसे दबाव hai जिनसे kbhi apki आवाज़ को mukhar होने में बढ़ा हो to blogging की ये nai taknik उसका behtarin upay प्रस्तुत करती है esi upay को azmate हुए अपने सफर को आगे badhana है ..............................................
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