शनिवार, 29 मई 2010
डूबता सूरज
उगते सूरज को मैंने कभी नही देखा
रात भर नींद से चली अनबन जब तडके ख़त्म होती है
तब अक्सर आँख लग जाया करती है
और यूँ
हर बार छूटता रहता है
वो दृश्य
जबकि मैं देख पाती एक स्वर्णिम सवेरे को
मगर हर दिन, जब ढलती है शाम
मैं देखती हूँ
डूबते सूरज को
सफ़ेद से स्वर्णिम
स्वर्णिम से सफ़ेद
आग की तरह तपकर भर दिन
शाम को जब ढलता है तो
फिर कुछ पल बाद
एक नए रूप में निकलता है
लोग उसे चाँद कहते है
मुझे तो डूब चुके सूरज का
अक्स लगता है
.
.
प्रकाश भी उसे सूरज से मिलता है
पल भी वो सूरज के लेता है
प्रेमी उसमे अपना महबूब तलाश लेते है
बेशक
मगर
प्रेम के अर्थ तो सूरज ही देता है
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8 टिप्पणियां:
सुन्दर अभिव्यक्ति...
great thought. lage raho
रात भर नींद से चली अनबन
जब तडके ख़त्म होती है
तब अक्सर आँख लग जाया करती है
सुन्दर है यह बिम्ब
सुन्दर रचना
बहुत ही सुन्दर रचना!
bahut sunder, http://sanjaykuamr.blogspot.com/
bahut khub
सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।
bahut sunder!
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