
मंगलवार, 3 अगस्त 2010
बाइते का जाना और खबर का देर से आना

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कमजोरी
उस दिन हैंड ड्रायर से हाथ सुखाते हुए मैंने सोचा काश आंसुओं को सुखाने के लिए भी ऐसा कोई ड्रायर होता . . फिर मुझे याद आया आंसुओं का स...
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तुम्हारी अनुपस्थिति ऐसे है जैसे वो लकीर जिस तक पहुंचकर एक-दूसरे में सिमट जाते हैं धरती और आसमान। तुम्हारी अनुपस्थिति ऐसे है ...
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आज सोचा कि जिंदगी की तन्हाई पर नही हर रात मुझे गुदगुदाता है जिसका अहसास अकेले से बिस्तर की उस रजाई पर लिखू उन बातों पर नहीं जिनसे बे...
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दोस्ती के दायरों के बीचोंबीच प्यार के कुनमुनाते एहसास को जब कोई नाम न मिले एक जरुरी जुस्तजू के बीच जब उस नाजायज जिक्र को जुबान न मिले...
3 टिप्पणियां:
यह रस्सी दुनिया की तरह गोल है, जिसका सिरा नहीं मिलेगा, हो सकता है, हो ही न। हम उस दौर में आगे बढ़ रहे हैं जहां पर इस तरह के सरोकारों पर चिंतित तो सब होते हैं पर उससे आगे ... सब बेबस हो जाते हैं।
एक प्रहसन का जिक्र करना चाहता हूं जो कि मेरे विचार से प्रासंगिक है। पत्नियां बनाते समय भगवान ने कहा कि अच्छी और समझदार पत्नियां दुनिया के हर कोने में मिलेंगी और फिर भगवान ने दुनिया गोल बना दी।
तो सरोकारों के संबंध में कुछ ऐसी ही गोलीय स्थिति हो गई है।
avinashji se sahmat hun ..........
अविनाश जी की स्त्रीविरोधी बात पर कुछ नहीं, लेकिन अपनी मां से ही पूछिये। समाजशास्त्रियों ने भेडचाल पर बहुत अध्ययन किया है। राबर्ट जेफ्री को भी याद कर लीजिए। मासूमीयत अच्छी चीज है। मासूमीयत हमें प्यारा इंसान बनाती है। लेकिन सिर्फ मासूमीयत से कुछ नहीं बदलता। ये हालात अगर बुरे लगते हैं तो इन्हें बदलने की ठोस कार्रवाई बनाइये। जब तक उस कार्रवाई का मसौदा तैयार नहीं कर लेती तब तक पैंच औ खम देखती रहिए। इसी विरोधावास के बीच कहीं वह कडी है, जिस पर चोट करनी है। रोने की तरकीबें बहुत हैं, लेकिन सिर्फ रोने वालों ने बस शोर ही फैलाया है रोकर आपका दुख बाहर तो आ सकता है, हालात नहीं बदल सकते।
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