- आज तक कितने माँ बाप है जिन्होंने अपने बच्चे की झूठ बोलने पर पिटाई की?
- कितने माँ बाप है जिन्होंने बेटे के सड़क पर किसी का एक्सिडेंट कर आने पर उसे पुलिस के हवालें कर दिया??
- कितने माँ बाप हैं जिन्होंने बच्चे के दाखिले के लिए रिश्वत देने से मना कर दिया???
- ऐसे कौन से महान माँ बाप हैं जिन्होंने बेटे के किसी लड़की का बलात्कार करके आने पर उसकी हत्या कर दी???
- ऐसे कितने किस्से हैं जिनमे माँ बाप ने बेटे के बहु को जिन्दा जला देने पर उसके खिलाफ एक रिपोर्ट भी दर्ज की????
- सवालों की ये फेहरिस्त तो काफी लम्बी हो सकती है लेकिन जवाब में क्या मिलेगा इसका अंदाजा करते हुए इसे यहीं समेट रही हूँ...समाज में फैली तमाम बुराइयों को अपने व्यवहार में शामिल कर लेने के बाद भी माँ बाप बच्चे को अपने आंचल में छुपा लेते है.बल्कि ऐसे कामों में कई बार उनका साथ भी देते है और उन्हें बचने के लिए तमाम हथकंडे भी अपनाते है.. क्रांति आती है तो सिर्फ इस बात पर की उसने इस जात की उस गोत्र की ऐसे खानदान की ..लड़की से प्यार कर लिया, शादी कर ली....फिर अचरज ये की इसे ओनोर किलिंग का नाम दिया जाता है यानि इज्जत के नाम पर की गई हत्या ...क्या तब इज्जत बढती है जब बच्चा गैर क़ानूनी काम करता है ...गुंडागर्दी, चोरी चाकरी, बलात्कार, रिश्वत खोरी और न जाने क्या क्या ....अगर इज्जत के नाम पर हत्या करने का कांसेप्ट इजाद किया ही जा रहा है तो ऐसे बच्चों को मारे जाने का तो कोई केस सामने नही आता ...हो हल्ला होता है तो नादान इश्क पर जो यक़ीनन खुद उन्होंने भी कभी न कभी किया होगा. जो सब करते है, सबको होता है, ये भी सब जानते है. उत्तर प्रदेश और हरियाणा से निकलकर अब इस जिन्न के तथाकथित दिल वालों की दिल्ली में भी दस्तक देने की चर्चा जोरो पर है ....जो बात दिमाग में पैठी हो उस पर जगह की स्टैम्प लगाना बेमानी है. दिल्ली आधुनिक है, देश की राजधानी है, इसलिए वहां कुछ नही हो सकता या वहां ही कुछ हो सकता है ये यहाँ आकर बसे भांति भांति के लोगों की सोच पर निर्भर करता है. और जो परिणाम देखने को मिल रहे है वो तो यही बताते है की लोगों की सोच बहुत खोखली है. इश्क से आपति करके या इश्क करने पर जान लेने से प्यार बनाम परिवार की इस जंग का अंत होता नही दिखता. जब तक लोग ब्रह्मण, शुद्र और वैश्यं बनकर सोचते रहेगे शायद तब तक ही वो अपने जायों को प्यार करने के अपराध में यूँ ही मारते रहेंगे.मैं प्यार की पूर्व का यूँ खुले आम समर्थन कर प्यार में सारी हदों को पार कर जाने और हीर राँझा या लैला मजनू की कहानिओ को दोहराने का कोई भावुक सन्देश नही देना चाहती. बात सिर्फ इतनी सी है की अगर समाज के तथाकथित दायरे में प्यार करना या अपनी पसंद के शक्स से शादी करना अपराध है तो उसी समाज में रिश्वत चोरी चाकरी ..भी तो अपराध है अगर प्यार पर कोई इतना कठोर हो सकता है तो इन अपराधों पर कठोर बनकर तो कई बुराइयों को ख़त्म किया जा सकता है ...और यक़ीनन कोशिश की जाये तो ये बुराइयाँ फिर भी ख़त्म हो जाएँगी लेकिन जिस प्यार को ख़त्म करने के लिए माँ बाप अपने बच्चे को जान से मार रहे है वो फिर भी बचा रहेगा. हमेशा कभी साक्षात् कभी अदृश्य ....किसी कवि ने कहा है
मंगलवार, 29 जून 2010
फिर भी बचा रहेगा प्रेम.....
बचपन का एक गीत हुआ करता था ..झूठ बोलना पाप है उसके घर में सांप है ....आप सब ने गाया हो या नही सुना तो जरुर होगा...बहरहाल अब इसकी तर्ज पर जवानी का भी एक गीत अख्तियार करना होगा ...प्यार करना पाप है, प्यार करने वालों के दुश्मन माँ बाप हैं......इन शब्दों को व्यंग्य समझे या विडंबना जो भी है सब ओनर किलिंग नाम के एक जिन्न की वजह से है. ये जिन्न जबसे खोकले संस्कारों की बोतल से बाहर निकला है एक के बाद एक जान लिए जा रहा है. लेकिन प्यार करने के जुर्म में जाने वाली ये जाने जहाँ नफरत फ़ैलाने वालों को जवाब देती दिखती है वहीँ कुछ अनछुए सवाल भी इनकी लाशों के इर्द गिर्द सुलगते नजर आते है.
शनिवार, 26 जून 2010
सिवा रात के
कुछ नही है मेरे पास
सिवा रात के
शब्द अब कम पड़ने लगे है
भीतर सैलाब है जज्बात के
दोपहर ही बस मिलती है हर दिन मुझे
क्या मालूम कब आकर चली जाती है
सुबह चुप चाप से
फिर हर रात जिक्र होता है रात से
सुबह की रुसवाई का
फिर हर बात पर बात चलती है
शब्दों की गहराई से
खुद से खफा हूँ अब इस पर क्या गौर करूँ
रश्क रहता है गैरों की बेवफाई से
महफ़िल देख दूर से
जहाँ जिस सफ़र पर चली मैं
पहुँच कर वहां मुलाकात हुई तन्हाई से
जो दोस्त रहे बरसो
वो अब आज यूँ मुझसे
दर्द की वजह पूछते है
जैसे मिल रहे हो
किसी लड़की पराई से
राहों पर
यूँ ही मिलने वाले भी कम मिले
और
एहतियातन हम भी लोगों से कम मिले
फिर भी न जाने क्यों डर लगता है जुदाई से
मंगलवार, 22 जून 2010
वो अजनबी जो हुआ आशना सा ..उससे अब है अलग रास्ता सा
ये क्या कि चंद क़दमों पर ही थक कर बैठ गए, तुम्हे तो साथ मेरा दूर तक निभाना था....किसी अपने से बिछड़ने का गम चाहे कितना ही छुपाया जाये पर भीतर कहीं टीस तो होती है. बचपन में पक्की सहेली बनाने का वो शौंक और उसके रूठ जाने पर घंटों घर जाकर माँ से उसकी बुराई करते हुए अन्दर ही अन्दर उससे सुलह के तरीके खोजना आज भी याद आता है. सोचती हूँ चंद पल जिसके साथ खेल खिलोने खेलती थी उसके कुछ दिन मुझसे गुस्सा हो जाने पर कितना परेशान हो जाया करती थी. अगर जीवन भर का कोई साथी रूठ जाये या अलग हो जाये इस दुख की तो कल्पना करना भी सिहरन पैदा कर देता है ...हम कितने भी तठस्थ क्यों न हो जाये भावों से ख़ाली तो नही हो सकते न. आज कल तलाक तलाक तलाक का शोर जोरो पर है गौरतलब है की कबिनेट हिन्दू विवाह अधिनियम में संशोधन करके तलाक की राह को आसान बनाने की तयारी कर रही है...महिला सशक्तिकरण के पैरोकार खूब खुश हैं ...वकील भी होंगे जब तलाक के मुक़दमे भाद जायेंगे तो ....लेकिन बैठक पर मेरा ये मुद्दा उठाने का कारन बाकी सारी वजहों से बिलकुल अलग है...ये बात कानून से मतलब नही रखती , ये बात समाज से तारुफ़ नही करती , चलिए परिवार को भी पीछे छोड़ देते है , और तमाम अन्याय अत्याचार की घटनाओ के बावजूद दो लोगों में छुपे उस अदृश्य प्यार को तलाशते हैं जो हर रोज नही सिर्फ किसी ख़ास पल में नजर आता है ...जिस एक पल से दो अजनबी दुनिया के हर जानने वाले से ज्यादा आशना से हो जाते हैं, वो पल जिसमे जिंदगी को उसके बिना सोचना भी बेमानी लगता है, आप सोचते होंगे ये मेरे अति सकारात्मक विचार हैं लेकिन मैं निराधार आशावाद में यकीं नही रखती हूँ ये बातें उन लम्हों को देखकर लिख रही हूँ जो मैंने किन्ही अनजान से पलों में अहिस्ता से आँखों के सामने प्रकट हुए संजीव से चित्रों में देखें है. दिन भर एक दुसरे से लड़ने वाले बूढ़ा बूढी जब बस पर चढ़ रहे थे और अम्मा नही चढ़ पाई तो बूढ़े बाबा ने उन्हें हाथ पकड़कर बस में चढाया और फिर चढ़ने के बाद एक धीमी सी मुस्कान दोनों के चेहरों पर दिखाई दी उनकी हर रोज की लड़ाई कतिनी छोटी पड़ गई थी मेरे लिए जब उन्हें यूँ बिना शब्दों के एक दुसरे से आई लुव यू कहते महसूस किया .....पड़ोस में रहने वाले उड़ीसा के साहू साहब जरा जरा सी बात पर अपनी बीवी पर चिल्लाते हैं ..गाहे बगाहे हाथ भी उठा देते है ..जवाब में पत्नी भी आक्रोश व्यक्त करती हैं खाना परोसती जाती हैं और कुछ ये बातें कहती है "पता नही कौन से बुरे कर्म किये थे मैंने जो तुम्हारे जैसा पति मिला" , ' मेरी सारी जिन्दगी ही ख़राब हो गई तुमसे शादी करके ' और फिर जब मैंने देखा कि माँ बनने के बाद डॉक्टर ने उन्हें आराम करने के लिए कहा है कोई काम करना मना है और परिवार का भी कोई सदस्य यहाँ उनकी सेवा करने नही आ सकता तो वही साहू साहब जो खुद मुझे भी बहुत बुरे लगते थे जब बीवी पर चिलाते थे और मैं भी सोचती थी कि इन्हें अलग हो जाना चाहिए वही शक्स अपनी नौकरी और घर के काम दोनों एक साथ कितनी सहजता से कर रहा है ल्कः दिक्कतों के बाद भी पत्नी को काम नही करने देता पुरे तीन महीने तक लगातार सेवा की , तब जब की कोई माता पिता भाई बहिन ........कोई नही आया सब आये औए हाल चाल पूछ कर चले गए ...सोच किसी भी हद तक जा सकती हैं लेकिन उस वक़्त का सच ये था की जिसके साथ जिंदगी बर्बाद सी हो गई लगती थी वही जिंदगी को सहेज रहा था .....आप भी देखेंगे तो ऐसे कई उदाहरन मिल जायेंगे ...हालाँकि अपनी इन बातों से मैं ये नही कह रही कि किसी भी तरह से बदसलूकी और बदतमीजी सहते हुए न उमीदी की गर्त में गिरे हुए कुछ लम्हों का इन्तजार किया जाये लेकिन हाँ सुलह के रस्ते तलाशना लाजमी है ....अगर मैंने लड़ते झगड़ते मियां बीवी को बीच पनपते प्रेम को देखा है तो उस अकेलेपन को भी महसूस किया है जो मुझे शादी के एक साल बाद ही दहेज़ कि वजह से अलग हुई एक मात्र २५ साल की लड़की के चेहरे पर हमेशा नजर आता है ...जो मुझसे कहती है पता है वो बुरे नही थे लेकिन उनके घर वालों को ही दहेज़ का लालच था उनकी वजह से हमें अलग होना पड़ा आज मैंने अपने दम पर सब कुछ हासिल कर लिया है लेकिन न मेरे बच्चे के पास पापा है न मेरे पास कोई पार्टनर. मेट्रो cities का कल्चर बेशक हमें उन्मुक्त होने के लिए कहे लेकिन फिर यही महानगर भीड़ में उस तनहा शक्स को बिलकुल अकेला छोड़ कर अलग हो लेते है ....और अकेलापन तो जो न करवाए वो अच्छा ....
जानती हूँ की मेरी बात तथ्यों से परे लग रही होगी आखिर आजादी अख्तियार करने के रस्ते में मैं कुछ भूले बिसरे शब्द जो बिछा रही हूँ ......आप बतायिए क्या मेरी बात बिलकुल बेमानी है .........
सोमवार, 21 जून 2010
तस्वीर के तसव्वुर में (2)
इस चूल्हे पर अब रोटी नही बनती
मुझे भी ये चूल्हा यूँ ही राह चलते मिल गया
इसकी तन्हाई की रौशनी जब आँखों पर पड़ी तो
बिन कुछ करे और कहे रहा न गया
इसलिए तुरंत फोटो खिंच ली
और अब कुछ कहने की कोशिश कर रही हूँ
सोचती हूँ कि अगर ये चूल्हा बोल सकता तो क्या कहता
कहता कि
अनजान राहों पर यहाँ
कूड़े के उस ढेर से थोड़ी दूर
कुछ बिन किसी की चाहत के उग आये पेड़ो के पास
मुझे
किसी मजदूर ने मजबूरी में
बनाया था
मजदूरिन सुबह तडके ही चड़ा देती थी
चावल मेरे सर पर
और शाम ढलते ही फिर जुट जाती थी
तयारी में
कभी मेरे सर पर उसने पीली दाल नही चढ़ाई
सफ़ेद भात हाथ को पांचों उँगलियों में भरकर
पूरा परिवार बड़ी शिदत से खाता था
सब यूँ ही चल रहा था की एक दिन
मजदूर का काम पूरा हो गया
अब उसे जाना था कहींऔर
काम ढूँढने के लिए
अब कहीं और बनाना थे उसे चूल्हा
अपना फटा कटा सारा सामान ले गया वो
जाने क्यों मुझे ही साथ न ले जा सका
मैं तो जुड़ गया था इस जमीन से इतने दिनों
में
मगर वो मजदूर जाने कितने जमीन के टुकड़ों से जुड़कर भी अलग ही रहा
दूसरों के मकान बनाता रहा
और अपने मंजर बढाता रहा
मेरा पता आज भी जानते है लोग
मगर न जाने वो मजदूर कहाँ होगा जो यहाँ
बिन छत के कोरे आसमान के नीचे
अपनी मजबूरी को बिछाता रहा
ओड़ता रहा
सुलाता रहा
शनिवार, 19 जून 2010
तस्वीर के तसव्वुर में (1)
ईंट , पत्थर और संगमरमर से लोगों के घर बनाने वाला मजदूर
पेड़ की छाँव में , गहरी नींद में
कड़ी मेहनत के बाद लू के गरम थपेड़े भी
बसंती हवा जैसे लगते होंगे
शुक्रवार, 18 जून 2010
खिड़की वाली सीट .............
दिल्ली में मेट्रो आये हुए, न जाने कितने दिन हो गए हैं. शुरू में लोग आँख भर कर देखते थे अजूबे सरीखे इस संसार को और फिर अरमान भर चढ़ने लगे कृत्रिम ठंडक के साथ यात्रा का अहसास लेने के लिए और अब तो हालत ये हैं की मुंबई की लोकल और दिल्ली की मेट्रो मुझे एक जैसी ही लगती है. भीड़ की असलियत इतनी भयावह है कि नकली रूप से इजाद की गई ठंडक कहीं काफूर हो जाती है. फिर गाहे बगाहे हादसे भी होते रहे है, तो मेट्रो सुर्ख़ियों में रहती ही है ...लेकिन न जाने क्यों मेरी अंखियों में हमेशा खचाखच भरी बसों का ख्वाब ही तैरता रहता है. वो बसे जिनमे कंडेक्टर धक्के दे देकर आपको बस में भरता ही जाता है. वो बसे जिनमे कभी भी आपकी तलाशी ली जा सकती है और पकडे जाने पर १०० रूपये का जुरमाना भी भरना पड़ सकता है. कम तो ये बसे भी नही है हादसों में , न जाने कितनी जाने गईं है इनके पह्यिओं से. हर ख्वाब की कडवी हकीकत की तरह इस ख्वाब में हादसों का रुदन हमेशा याद आ जाता है लेकिन पहलूँ दूसरा है एक, जो दिल से जुडा है , जिसे मैं कभी भूल नही पाती , दिल्ली जैसे महानगर में मेरी जद्दोजहद और ito , मंडी हाउस और कनाट प्लेस में चपले घिस कर बीत जाने वाली वो सुर्ख दुपहरियां. कहीं दरवाजे के अन्दर पहुँच कर "न " कहीं दरवज्जे से ही "न ". आप अन्दर नही जा सकती ...अभी यहाँ कोई नौकरी नही हैं. जाने कितनी बार फोन पर बात करने के बाद मिलने वाले वो किसी के १० मिनट और वो दो मिनट में ख़त्म हो जाने वाली बात.... जिन रास्तों पर कभी झांककर देखा नही था , लेकिन उन गलियों की जिज्ञासा हमेशा मन में थी की ये रास्ता जाता कहाँ है ...हर ऐसे रस्ते पर चलने का वो लुत्फ़ और मन की बेचैनी क़ि मंजिल मिलेगी या नही...और फिर वहां से लौटते वक़्त उस लुत्फ़ का मन की गलियों में कहीं लटके हुए मिलना..... ये दिन बहुत अजीब थे.... दिल अमीर था , हालात गरीब थे . हालाँकि हालत अब भी ज्यादा नही बदली हालात अब भी चिड़ाते है ...लेकिन जब भी कई दिन बाद फिर तमाम आरोपों से घिरी उन बसों में से एक बस पर चढ़ने के बाद वो खिड़की वाली सीट मुझे मिली तो .....सारी यादें याद आ गई, ये एहसास जो तब कहना ही भूल गई थी मैं इसलिए आज लिख रही हूँ .....कई उम्मीदों की उलझन में घर से निकलना और नाउमीद होकर वापस लौटने के बीच वो कुछ सुकून के पल... जिन्होंने हमेशा आत्महत्या करने जा रहे मेरे सपनो की जान बचाई....जब जब निराश हताश बस में चढ़ी और मुझे मिली वो खिड़की वाली सीट....... मैंने खुद को एक कोने में रखकर जब दुनिया को देखा तो मुझे दिखा सड़क पार करता एक बूढा इंसान,,नंग धडंग बच्चे को गोद में लिए भीख मांगती औरत... पानी की पन्नियों को बाल्टी में रखकर हर स्टॉप पर पानी बेचते दिखते वो बच्चे, वहीँ कहीं पानीपूरी की दूकान पर चाट पकोदियों के चटकारे लेते परिवार, फिर रस्ते में पड़ने वाले माल से हाथ में हाथ डाले निकलने वाले वो प्रेमी जोड़े,............ कुछ रास्तों से खौफ खाकर बस में चड्ती थी और फिर खिड़की वाली सीट से जो रस्ते मैंने देखे उन्होंने मुझे जिंदगी के कई रंग दिखाए एक ही सड़क पर साथ साथ चलते कई तरह के सच ...जो सिर्फ सच थे कुछ और नही...न उनमे कोई सोच थी न कोई सपना ...एकलौते सच. आज भी दोस्त हँसते है जब मेट्रो को छोड़ बस में निकलने की जिद पकड़ लेती हूँ मैं ....मैं नही बंध पाती आराम के उन अंधेरों के बीच जहाँ उजाले में भी मुझे दुनिया दिखाई ही न दे ...सब रंग छुप जाये कहीं कुछ झूठी चीजों के दिखावे की खातिर ....अब जहाँ नौकरी मिली है वहां ऑटो से ही जाना होता है बस में नही बैठ पाती हूँ लेकिन अब भी जब कभी हताश होती हूँ तो बहुत याद आती है वो खिड़की वाली सीट ........उस खिड़की से पड़ने वाले जाती- जाती धुप और आती-आती हवा दोनों का अहसास आज भी मुझे याद है ..एक कुनमुनाता सा एहसास जिसे महसूस कर लेंने भर से ही मैं गिरते गिरते संभल जाती हूँ ...............
मंगलवार, 15 जून 2010
दोस्ती
मेरी तकलीफ की तफसीर में
न जा ए दोस्त
तू नही समझेगा
मेरी तक़दीर की तासीर
जिसने हर तबस्सुम के एवज में
मुझे ताजिर दी है
ये दोष महज लकीरों का नही
गुनेहगार हूँ बराबरी की मैं भी
खुद की भी और
अपने उन अजीजों की भी
जिन्होंने मुझे जिंदगी दी है
आँखों से काम लेना था ये
कि
दुनिया को देखूं
और मैं समझ बैठी कि
ख्वाबों का आशियाना है ये
अब ख्वाब भी बेघर है
और
बेसबब हूँ मैं भी
आँखों से उठाकर जिन्हें
दिल में बिठाया
वो सोचेंगे
कि
मैंने बेवफाई की है
जो शिकवे खुद से हैं मुझे
वही
शिकायते उन्हें मुझसे हैं
कैसे करुँगी
दूध का दूध और
पानी का पानी
मय के कारखानों में
मधु की तरह
बह रही हूँ मैं
..
.....
.......
....
यूँ जो तेरे कहने पर कर गई
हूँ बया अपने जज्बात
अब इस पर भी खौफ खाए हूँ मैं
बड़ी बेअदब है ये दुनिया
और
डर है इसी बात का
कि
दोस्ती का ये तेरा मेरा रिश्ता
कही
धकिया न जाये
धोखे की फर्जी मुटभेड में
शनिवार, 12 जून 2010
कविता में अभाव
एक दिन
देश के गैर राजनीतिक बुद्धिजीवियों से
मामूली आदमी पूछेगा
उन्होंने तब क्या किया जब हल्की और अकेली
मीठी आग की तरह
देश दम तोड़ रहा था ?
कोई नहीं पूछेगा उनसे
उनकी पोशाकों के बारे में
दोपहर के भोजन के बाद लंबी झपकी के बारे में
कोई भी नहीं जानना नहीं चाहेगा
शून्य की धारणा से उनकी
नपुंसक मुठभेड़ के बारे में
कोई चिंता नहीं करेगा
उनकी उच्च वित्तीय विद्यता की
उनसे नहीं पूछा जाएगा
सफेद झूठ की छाया में जन्में
उनके ऊलजूलूल जवाबों के बारे में
उस दिन मामूली लोग आयेंगे आगे
जिनका गैर राजनीतिक बुद्धिजीवियों की
किताबों और कविताओं में कोई स्थान नहीं है
जो उन्हें रोज रोटी और दूध और अंडे पंहुचाते है
जो उनके कपड़े सीते हैं
कार चलाते हैं
जो उनके कुत्तों और बाघों की देखभाल करते हैं
वे पूछेंगे तब तुमने क्या किया
जब गरीब पिस रहे थे?
जब उनकी कोमलता और जीवन रीत रहे थे?
देश के गैर राजनीतिक बुद्धिजीवियों से
मामूली आदमी पूछेगा
उन्होंने तब क्या किया जब हल्की और अकेली
मीठी आग की तरह
देश दम तोड़ रहा था ?
कोई नहीं पूछेगा उनसे
उनकी पोशाकों के बारे में
दोपहर के भोजन के बाद लंबी झपकी के बारे में
कोई भी नहीं जानना नहीं चाहेगा
शून्य की धारणा से उनकी
नपुंसक मुठभेड़ के बारे में
कोई चिंता नहीं करेगा
उनकी उच्च वित्तीय विद्यता की
उनसे नहीं पूछा जाएगा
सफेद झूठ की छाया में जन्में
उनके ऊलजूलूल जवाबों के बारे में
उस दिन मामूली लोग आयेंगे आगे
जिनका गैर राजनीतिक बुद्धिजीवियों की
किताबों और कविताओं में कोई स्थान नहीं है
जो उन्हें रोज रोटी और दूध और अंडे पंहुचाते है
जो उनके कपड़े सीते हैं
कार चलाते हैं
जो उनके कुत्तों और बाघों की देखभाल करते हैं
वे पूछेंगे तब तुमने क्या किया
जब गरीब पिस रहे थे?
जब उनकी कोमलता और जीवन रीत रहे थे?
( एक हकीकत जिससे मैं हाल ही में रु- बा- रु हुई ....कहीं पढ़े इन शब्दों के माध्यम से)
शुक्रवार, 11 जून 2010
कलयुग की माया
ये द्वापर युग नही है न ही सतयुग .
कि यहाँ कंस और रावन जैसे राक्षस मिले
लेकिन ये जो कलयुग है
यहाँ भी लोग कम मायावी नही है
हर बदलते पल के साथ यहाँ लोगों का नजरिया और व्यवहार बदल जाता है
जाने कैसे ये लोग पल भर में प्यार को नफरत और नफरत को प्यार बना कर पेश कर देते है ..............
मंगलवार, 8 जून 2010
रूठे हुए कुछ शब्द
कुछ शब्द जिंदगी से गायब हो गए हैं ...
बहुत चुप चाप न जाने कहा चले गए है रूठ कर ....
न मेरे पास हैं ...न उसके पास
और तुम्हारे पास भी नही मिले वो
उन शब्दों का अकाल है
या किसी ने आपातकाल लागू कर दिया है
अक्षरों पर
की जुड़कर वो शब्द बन ही न सके फिर से
जो दोड़ती जिंदगी में देते
दिल को दो पल का आराम
वो शब्द.........
जो हमसफ़र को बना सकते हमराज
वो शब्द
जिनसे हो सकता अटूट प्रेम का वादा
जिनमे बस सकती अमिट यादें
जिन्हें सुनकर लौट आते बरसो पहले परदेस गए लोग
जो भर देते हर तन्हाई को तबसुम के उजालों से
....,...................और जब होता किसी युद्ध का आगाज वो शब्द कर देते वहां शांति को स्थापित
सारी दुनिया अधूरी सी हो गई है उन शब्दों के बिना
पंच्छी अब पिंजरे से निकलना ही नही चाहते
और इंसान अब जकड रहा है खुद को
कुछ नई बेडिओं में
सोमवार, 7 जून 2010
मीडिया इंस्टिट्यूट -हर मोड़ पर है मिलावटी माल की एक महंगी दूकान
मीडिया में आने के सपने और संघषॆ के बाद जो नया शौंक चढ़ा वो है मीडिया को पढ़ने का, पढे हुए को समझकर और अपनी बीती से मिलाकर कुछ लिखने का। इसी सिलसिलें में मीडिया के कुछ लोगों को खासकर उनके सफर को पढ़ा तो एक बात मुझे अपनी सी लगी वो है मीडिया में आने की उनकी कहानी। मेरा किस्सा भी कुछ ऐसा ही है और जितने लोगों को मीडिया में पढने की कोशिश करती हूँ उनका अनुभव भी कुछ वैसा ही नजर आया। घर से भागकर, घरवालों के खिलाफ जाकर, घर पर बिना बताये, पिता जी से लड़कर, माँ को मनाकर..पत्रकारिता की पढाई करने की इजाजत अधिकतर लोगो को पूर्ण सहमति के रूप में नही मिली है। हर एक सफर पर एक खास खबर तैयार हो सकती है। सबके अपने-अपने अलग किस्से रहे है क्रांतियों के। घर से क्रांति करके निकले और समाज में क्रांति करने का सपना संजोया। फिर हुआ ये कि कदम वक़्त को नही समझ सके लेकिन क्रांति वक़्त की आंधी में कई कदम पीछे हो गई। लेकिन कदम जब बेलगाम, आगे बढे उबड़-खाबड़ रास्तों पर, तो वो चिकनी सड़क का मोह न छोड़ सके। आखिर सब कुछ छोड़ कर आये एक व्यक्ति के पास अब कुछ और छोड़ने का विकल्प ही नही था। समाज समाज करते-करते बातें स्वयं से शुरू होकर स्वयं पर ख़त्म होने लगी। दरअसल संघर्ष जिंदगी की एक सच्चाई है लेकिन कई बार संघर्ष की इस कहानी में ट्विस्ट आ जाते है, बेहद घातक ट्विस्ट। जब सिस्टम की लाग-लपेट में आप के सपनो का लहू निकलने लगता है।
सालों पहले की पत्रकारिता को छोड़ दें और सिफॆ आज की बात करें तों इस सफर की शुरुआत के लिए सबसे जमीनी आधार और बड़ी जरुरत है वो होता है एक बढ़िया, नामचीन, रोजगार मुहैया करने वाला मीडिया संस्थान। इस तलाश में दिल्ली में तो आपको ज्यादा भटकना नहीं पड़ेगा। दिल वालों की दिल्ली में तो ऐसी दुकानों की कोई कमी नहीं है। चुनाव आपका है, विकल्प बहुत है।
आपसे साक्षात्कार में ये खूबसूरत सवाल पुछा जाना लाज़मी है कि आप पत्रकार क्यों बनना चाहते है। इस पर आपकी वजह चाहे आपकी ख़ूबसूरती हो, कड़क आवाज, आपका मिजाज या फिर लिखने की शमता लेकिन किसी भी सूरत में आपको ६ महीने में एंकर और रेडियो जॉकी बना ही दिया जायेगा। बड़ी कंपनी के ब्रांड की तरह यहां उस तरह का टैग तो नहीं लगा होता कि कंडीशनस एप्लाई, लेकिन जो कंडीशनस यहाँ एप्लाई की जाती हैं वो बस एक नोटों की एक मोटी गड्डी है।
खैर व्यंग्य रूप में बहुत कुछ कहा जा सकता है क्योंकि मीडिया की पढाई किसी मजाक से कम नहीं रह गई है लेकिन जब बात छेड़ी है तो कुछ तथ्य जिकिरियाना जरुरी है
पत्रकारिता के कोर्से तीन तरह के संस्थान चला रहे है
एक जो सरकार के माध्यम से पोषित है
दुसरे जो नामी विश्विधाल्यों से मान्यता के नाम पर अपना स्कूल खोले हुए है
तीसरे वो जिन्हें खुद न्यूज़ चैनेल और अख़बारों ने खोला है। सबसे ज्यादा चलने वाली दुकान दरअसल यही है। यहाँ प्रोफशनल लोग पढाते है, पूरा माहौल होता है जिसमे आगे जाकर काम करना है। नाम तो वैसे दिल्ली विश्वविधालय का भी कम नहीं है लेकिन जहाँ तक पत्रकारिता की बात है तो ये ऊँची दुकान फीका पकवान वाली बात होगी
प्रिंट मीडिया , इलेक्ट्रोनिक मीडिया से लेकर फिल्म प्रोडक्शन जैसे विषय हिंदी के अध्यापक पढ़ा रहे है। हालाँकि अध्यापक अपने स्तर पर छात्रों को सम्बंधित जानकारी उपलब्ध करा भी दे तो ये उसकी निजी व्यावहारिकता होगी। लेकिन एक भाषा के टीचर से मीडिया पढवाना दोनों तरफ से शोषण करना है। जिस तेजी से मीडिया में बदलाव हो रहे है, हर एक साल पर कोर्से रिवाइस होने चाहिए। यहां तो पिछले कई सालों से आज़ादी के समय वाली पत्रकारिता पढाई जा रही है जबकि अब हम नई तरह की बेड़ियों में जकड़े जा चुके है। आज अगर जो लिखा है ये पहले कहीं पढ़ लिया होता तो अब ये लिखने की नौबत नहीं आती। खैर ये बेहद निजी भाव है। लेकिन अगर मीडिया एक उभरता करियर विकल्प बन रहा है और लोग उसमे आना चाहते है तो पढाई के स्तर पर भी बदलाव होना बहुत जरुरी है। क्योंकि पत्रकार बेशक प्रधानमन्त्री नहीं होता लेकिन वो एक पत्रकार होता है जो अपने स्तर पर पूरी तरह आज़ाद होकर देश और दुनिया से जुड़े कई आयाम गढ़ सकता है। जब शिक्शा नितियों में सुधार की बात चल ही रही है तो ये सवाल उठाना और सबको दिखने वाले इश दृस्य को शब्दों के माध्यन से प्रतिबिंबित करना मुझे जरुरी लगा। शायद कोई माननीय पहुंच वाले व्यकित पढ़ ले और कुछ बदलाव हो सके.......
सालों पहले की पत्रकारिता को छोड़ दें और सिफॆ आज की बात करें तों इस सफर की शुरुआत के लिए सबसे जमीनी आधार और बड़ी जरुरत है वो होता है एक बढ़िया, नामचीन, रोजगार मुहैया करने वाला मीडिया संस्थान। इस तलाश में दिल्ली में तो आपको ज्यादा भटकना नहीं पड़ेगा। दिल वालों की दिल्ली में तो ऐसी दुकानों की कोई कमी नहीं है। चुनाव आपका है, विकल्प बहुत है।
आपसे साक्षात्कार में ये खूबसूरत सवाल पुछा जाना लाज़मी है कि आप पत्रकार क्यों बनना चाहते है। इस पर आपकी वजह चाहे आपकी ख़ूबसूरती हो, कड़क आवाज, आपका मिजाज या फिर लिखने की शमता लेकिन किसी भी सूरत में आपको ६ महीने में एंकर और रेडियो जॉकी बना ही दिया जायेगा। बड़ी कंपनी के ब्रांड की तरह यहां उस तरह का टैग तो नहीं लगा होता कि कंडीशनस एप्लाई, लेकिन जो कंडीशनस यहाँ एप्लाई की जाती हैं वो बस एक नोटों की एक मोटी गड्डी है।
खैर व्यंग्य रूप में बहुत कुछ कहा जा सकता है क्योंकि मीडिया की पढाई किसी मजाक से कम नहीं रह गई है लेकिन जब बात छेड़ी है तो कुछ तथ्य जिकिरियाना जरुरी है
पत्रकारिता के कोर्से तीन तरह के संस्थान चला रहे है
एक जो सरकार के माध्यम से पोषित है
दुसरे जो नामी विश्विधाल्यों से मान्यता के नाम पर अपना स्कूल खोले हुए है
तीसरे वो जिन्हें खुद न्यूज़ चैनेल और अख़बारों ने खोला है। सबसे ज्यादा चलने वाली दुकान दरअसल यही है। यहाँ प्रोफशनल लोग पढाते है, पूरा माहौल होता है जिसमे आगे जाकर काम करना है। नाम तो वैसे दिल्ली विश्वविधालय का भी कम नहीं है लेकिन जहाँ तक पत्रकारिता की बात है तो ये ऊँची दुकान फीका पकवान वाली बात होगी
प्रिंट मीडिया , इलेक्ट्रोनिक मीडिया से लेकर फिल्म प्रोडक्शन जैसे विषय हिंदी के अध्यापक पढ़ा रहे है। हालाँकि अध्यापक अपने स्तर पर छात्रों को सम्बंधित जानकारी उपलब्ध करा भी दे तो ये उसकी निजी व्यावहारिकता होगी। लेकिन एक भाषा के टीचर से मीडिया पढवाना दोनों तरफ से शोषण करना है। जिस तेजी से मीडिया में बदलाव हो रहे है, हर एक साल पर कोर्से रिवाइस होने चाहिए। यहां तो पिछले कई सालों से आज़ादी के समय वाली पत्रकारिता पढाई जा रही है जबकि अब हम नई तरह की बेड़ियों में जकड़े जा चुके है। आज अगर जो लिखा है ये पहले कहीं पढ़ लिया होता तो अब ये लिखने की नौबत नहीं आती। खैर ये बेहद निजी भाव है। लेकिन अगर मीडिया एक उभरता करियर विकल्प बन रहा है और लोग उसमे आना चाहते है तो पढाई के स्तर पर भी बदलाव होना बहुत जरुरी है। क्योंकि पत्रकार बेशक प्रधानमन्त्री नहीं होता लेकिन वो एक पत्रकार होता है जो अपने स्तर पर पूरी तरह आज़ाद होकर देश और दुनिया से जुड़े कई आयाम गढ़ सकता है। जब शिक्शा नितियों में सुधार की बात चल ही रही है तो ये सवाल उठाना और सबको दिखने वाले इश दृस्य को शब्दों के माध्यन से प्रतिबिंबित करना मुझे जरुरी लगा। शायद कोई माननीय पहुंच वाले व्यकित पढ़ ले और कुछ बदलाव हो सके.......
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