मंगलवार, 2 मार्च 2010

सच को बदलने का सपना



जब फूलों को खिलते देखा....तो मैंने एक ख्वाब लिखा
झरने को नदी में ..नदी को सागर में गिरते देखा...तो मैंने एक ख्वाब लिखा
पतली सी सफ़ेद लकीर को पूरा होकर चंद बनते देखा ...तो मैंने एक ख्वाब लिखा
हवा को जब महसूस किया मुझे छु कर गुजरते हुए ...तो मैंने एक ख्वाब लिखा
सावं की बारिश ने जब जिस्म से रूह तक भिगो दिया मुझे... मैंने एक ख्वाब लिखा
रंगों की होली भी देखी...और रौशनी से सजी दिवाली भी
मगर जब देखा तारो से सजे आसमान के नीचे
अभावो का आवास
जब देखा सोना उगलती धरती पर
बंजर जिंदगी ..और
बंजारा जीवन
जब एक तरफ सुना मैंने अपच से परेशान है कुछ लोग..और
दूसरी तरफ पढ़ा
भूख का भूगोल
जब मासूमियत को ढूंढ रही मेरी आँखों ने
गुब्बारा बेच रहे उस बच्चे की आँखों में
 बेहद संजीदगी देखी
जब अख़बारों में पढ़ी मैंने
बेटी से बलात्कार
निर्दोष पर अत्याचार...और
ढोंगी बाबाओं के चमत्कार
की ख़बरें ..और
करीब जाकर देखा
महलों सी इमारतों के सामने वाली सड़क पर
मिटटी के घरोंदो में गुजरती जिन्दिगियों को
मेरे लिखे हुए सारे ख्वाब
एक एक कर मिटने लगे
फूलों के साथ कांटे
चाँद में ग्रहण
हवा के बाद चलने  वाली आंधी
बारिश से आने वाली बांड
एक एक कर सारे सच
खुलने लगे
तब ख्वाबों को लिखना छोड़ दिया मैंने
.
.
.
.
ये सपनो का मर जाना नही है
न ही है उस सच को यूँ ही अपनाना 
ये एक कोशिश है 
इस हकीकत को बदलने का 
ख्वाब लिखने की

3 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

मगर देखा तारों से भरे आस्मान की नीचे अभावों का संसार देखा----- बहुत गहरी अनुभूतियां शब्दों मे ब्यान की हैं बहुत अच्छी लगी ये रचना धन्यवाद और शुभकामनायें

शोभा ने कहा…

वाह बहुत सुन्दर लिखा है। बधाई स्वीकारें।

संजय भास्‍कर ने कहा…

वाह बहुत सुन्दर लिखा है। बधाई स्वीकारें।

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